Sunday, March 6, 2016

शिव ही हैं सुन्दर सृष्टि के नियामक


हमारी आध्यात्मिक संस्कृति में शिव अनूठे हैं। एक औघड़ जो कैलाश पर वीतरागी होकर विराजमान  है ,इस जीवन की आपाधापी में बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। पुराणों की और चहलकदमी करें तो वहाँ शिव के विभिन्न रूपों , अवतारों का जिक्र मिलता है और  जो तथ्य सामने आते हैं वे हैं- शिव स्वयंभू हैं,शाश्वत हैं, सर्वोच्च सत्ता हैं , विश्व चेतना हैं और ब्रहमाण्डीय अस्तित्व की आधारशिला हैं। वस्तुतः अगर शिव के सार्वकालिक अवतारों और रूपों का विश्लेषण करें औऱ मानव सभ्यता के इतिहास की बात करें तो चेतना के विकसन की प्रेरणा के मूलभूत तत्व के रूप में शिव को पाते हैं। अपनी चेतना के विस्तार को लेकर जो युगों युगों तक समाधिरत रहा हो वह शिव जैसा जोगी ही हो सकता है इसीलिए शिव को सभ्यताओं का नियामक भी कहा गया है। शिव की सार्वभौमिकता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता । विश्व की अनेक सभ्यताओं के प्राचीन अध्यायों में शिव का उल्लेख सप्रमाण मिलता है। इंका, माया, बेबीलोन और मेसोपोटामिया की सभ्यता में पितृ शक्ति की उपासना के प्रतीक मिले हैं। ये प्रतीक ही शिव आस्था की वैश्विकता को भी सिद्ध करते हैं। जहां वेदों में शिव रुद्र हैं, वहीं पुराण में वे अ‌र्द्धनारीश्वर हो जाते हैं। यह एक गंभीर आध्यात्मिक चिंतन है जो जीवन में साम्यता का पक्षधर है। जहां शिव एक ओर भारत को वैश्विक आध्यात्मिक धारा से जोड़ते हैं, वहीं सिंधु सरस्वती सभ्यता और वैदिक सभ्यता के मध्य सेतु का काम भी करते हैं। यह प्रमाणित हो चुका है कि आमतौर पर वैदिक समाज में शिव संस्कृति का व्यापक प्रभाव था। वस्तुतः शिव एक ऐसी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अध्यात्म और दैवीय शक्तियों के प्रति मानवीय जिज्ञासाओं का प्रतिनिधित्व करती है और यही कारण है कि शिव चेतन औऱ अचेतन के बीच एक पुल का काम करते हैं।


केदारनाथ, तुंगनाथ, महामहेश्वर और कमलेश्वर वैदिककालीन शिव संस्कृति के प्रतीक हैं। शिव एक दार्शनिक तत्व हैं। वे सृष्टि के प्रत्येक नियम और स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिव के आकर्षण का एक औऱ महत्वपूर्ण कारण है कि वे परस्पर विरोधी शक्तियों को साथ लेकर चलते हैं। जीवन में ज्ञान, क्रिया और इच्छा के  अभाव के कारण ही मनुष्य दुःखों के समुद्र में डूबा रहता है । शिव इन तीनों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करते हैं। शिव प्रकृति से जुड़े हैं इसीलिए पहाड़ों में निवसते हैं । ऐसे दुर्गम स्थानों पर जहाँ राग औऱ तम चाहकर भी नहीं पहुँच सकते। इसीलिए शिव से जो  दर्शन जुड़ा है ,वह शैव दर्शन भी प्रकृतिवादी दर्शन है। शिव प्रकृति के सृजन और संहार दोनों से जुड़े हैं। वे मसानों की भस्म  मलते हैं , अघोरी है पर सृष्टि के मंगल की कामना में सदैव रत रहते हैं। यही कारण है कि उनका सृजन से जुड़ा रूप शिव कहलाता है तो संहार से जुड़ा रूद्र। सृजन और संहार का यह समन्वय , बताता है कि सृजन और संहार शाश्वत है और परिवर्तन अवश्यंभावी है।
शिव की दृष्टि लोककल्याणकारी है इसीलिए राम भी कहते हैं कि शिव द्रोही मम दास कहावा , सो नर मोहिं सपनेहूँ नहीं भावा..शैव और वैष्णव में समन्वय स्थापित करने के लिए इस निरहंकारी देव की उपस्थिति सकारात्मकता का ही परिचायक है। सब कुछ होते हुए भी औघड़ हो जाना, फ़कीर होने तक भी देने का सुख और सहजता का केदारनाथ केवल और केवल शिव ही दिखते हैं। वे सृष्टि पर नेह रूपी अमृत की वर्षा करते हैं और स्वयं हलाहल का पान करते हैं। गंगा के वेग को औऱ उसके अहंकार को शीश पर धरते हैं औऱ उमा को वाम अंग में धारण कर अर्धनारीश्वर कहलाते हैं।शास्त्रों के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्मांड महाशिवरात्रि पर ही अपने अस्तित्व में आया था। लिंग पुराण के अनुसार फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। यह पर्व निराकार परमेश्वर शिव के साकार रूप में शंकर के उदय  होने का दिन है। इस दिन महादेव का विवाह उत्सव भी है।  ईशान संहिता में इस दिन को आत्मा के उत्थान का दिन कहा गया है।

शिव का अर्थ है जो है ही नहीं अर्थात् शून्य। मानव इस भौतिक जगत में जो कुछ भी खोजने का प्रयास कर रहा है उस से द्वन्द्व उपज रहा है और इस भौतिकता से जो परे हैं वह है शिव अर्थात् शून्य। शून्य का अर्थ है पूर्ण खालीपन, रिक्तता , भरा होकर भी खाली होने की अवस्था।  एक ऐसी स्थिति जहां भौतिकता का लेशमात्र भी अंश नहीं  है।  तो जहां भौतिक कुछ है ही नहीं, वहां ज्ञानेंद्रियां भी निष्काम  हो जाती हैं। अगर आप शून्य से परे जाएं, तो आपको जो मिलेगा, उसे हम शिव के रूप में पा सकते हैं। भौतिकता से परे होने के कारण इस शिव रूप के सीधे सीधे दर्शन नहीं किया जा सकता यही कारण है कि योग विज्ञान कहानियों के माध्यम से इसका ध्यान खींचता है।
शिव के अनेक अलंकार है । जिन्हें प्रतीक रूप में धारण करने के पीछें भी अनेक कल्याणकारी संदेश हैं। सर्वप्रथम अगर शिव का त्रिशूल लें तो यह जीवन के तीन मूल विस्तारों को दर्शाता है। योग परंपरा में इन्हें रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी भी कहा गया है। जिन पर समूचा शारीरिक वास्तु टिका हुआ है। शिव के वाहन के रूप में प्रयुक्त नंदी अनंत प्रतीक्षा औऱ गज़ब के धैर्य  का प्रतीक है।  शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं और चंद्रमौलि कहलाते हैं। शिव  एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं।  सोम का ही एक अर्थ सोम भी है पर यहाँ शिव भौतिक नशे में भी सजग रहने का उदाहरण देते हैं। शिव को त्रयंबक कहा जाता है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का अर्थ किसी असामान्यता से नहीं वरन् इसका तात्पर्य  है  ध्यान और भीतरी सजगता बोध , अनुभव का एक नवीन आयाम खोल देता  है। दो आंखें स भौतिक वस्तुओं से परे नहीं देख सकती हैं। शिव के गले में पड़े सर्प  कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। यह  भीतर की वह उर्जा है जो  इस्तेमाल नहीं हो रही है, किसी कोने में ओझल और छिपी हुई है।  कबीर की अनेक उलटबासियों में पाताले पणिहारी के रूप में भी इसका उल्लेख है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो व्यक्ति को उसके अस्तित्व का पता भी नहीं चल पाता है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी  महसूस होता है कि हमारे ही भीतर  इतनी शक्ति है। शिवरात्रि पर शिवालयों में गूँजता ॐ नम: शिवायवह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है जिसे पंचाक्षर  भी कहा गया है। ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं। इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है। ये पूरे तंत्र  के शुद्धीकरण के लिए बहुत शक्तिशाली माध्यम हैं। ॐ का माहात्म्य वैज्ञानिक भी मान रहे हैं। गौरतलब है कि हाल ही में हुई वैज्ञानिक शोधों से यह पता चलता है कि सूर्य के पास जो  ध्वनि गुंजायमान हो रही है वह ॐ से मिलती जुलती है।  शिव तत्व ओंकार को ब्रह्माण्डीय सघनता प्रदान करता है। वर्तमान में जो वैषम्य है उसमें साम्य स्थापित करने के लिए शिवत्व की  सुंदर अवधारणा अनेक अर्थों में संपूर्णता की ओर ले जाने में कारगर साबित हो सकती है।


1 comment:

Dr.latta said...

ॐ नमः शिवायः