कहीं भावनाएँ बरबस पिघलती है तो कहीं जरुरी ताप की उपस्थिति में भी सख्त बर्फ
सी जमी रहती है, यही नज़र आ रहा है जामडोली के विमंदित गृह की
उधड़ती तस्वीरों और भयावह सच की परतों से जो हर मन को उद्वेलित कर रही है।
16 अप्रेल से वहाँ कुछ सांसें बोझिल थी , दो दिन बाद कुछ थम गय़ी और फिर चल पड़ा थमी साँसों में इजाफ़ा होने का एक निरन्तर सिलसिला
जो शायद उन सांसों के ,तमाम लापरवाहियों और
यंत्रणाओँ से आजाद होने का एकमात्र नैसर्गिक प्रतिरोध का रास्ता था। ये
हादसे खौंफ पैदा करते हैं, साथ ही विभागों,संबंधित अधिकारियों और सरकार की गैर
जिम्मेदार जवाबदेही औऱ लापरवाही की पोल खोलते नज़र आते हैं। जयपुर के समीप जामडोली के विमंदित गृह में बीते एक पखवाड़े
में 12 बच्चों की मौत गंदे पानी के कारण
हुए हैजे से हुई। जाँच जारी है और रोजाना चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे
हैं। खाने – पीने में अनियमितता, सफाई का
अभाव और फटे कपड़ों में लिपटे बेबस शरीरों
के चित्र हर किसी के मन को द्रवित कर देते हैं, परन्तु विडम्बना है कि उनके
देख-रेख करने वालों की आँखें बस अपने स्वार्थ पर टिकी थी । गौरतलब है कि विमंदित
गृह में वे सांसे बसती है जिन्हें अतिरिक्त देख-रेख की आवश्यकता होती है । वे
मानसिक रूप से कुछ पिछ़ड़े होते हैं । उनके सपने चिरैया से दूर आसमां में उड़ गए
हैं और उनकी दुनिया की आस का सूरज उन चहारदीवारों की दरारों से झाँकता हुआ भी दिखाई नही पड़ता। हम ज़रा सी असुविधा पर झुंझला उठते हैं पर
विमंदित गृहों में जिन अनियमितताओं का आलम है वह सोच और समझ से परे हैं। ये
लापरवाहियाँ आक्रोश पैदा करती है, संवेदनाओं को झकझोरती है औऱ अनेक सवाल खड़े करती है। अखबारों में छपी तस्वीरें
बयां करती है कि ये गृह यातनाओँ के केन्द्र बन गए हैं और इनके संचालक लोभ के पुतले, जिनकी मानवीय
संवेदनाएँ चुक गयी हैं।
जिस बालगृह की बात यहाँ की जा रही है वहाँ 200 के आसपास बच्चे रहते हैं। बताया
जा रहा है कि प्रत्येक बच्चें के लिए सरकार 4000 सालाना कपडों पर और 1850 प्रतिमाह खाने पर
खर्च करती हैं। परन्तु फटी आँखें और उघड़ते तन इन आँकड़ों की सच्चाई को नकारते
हैं। मासूम आँखें सवाल करती नज़र आती है कि केवल अनुदान दे देना ही अपने कर्तव्य
से इतिश्री पा लेना है या उन्हें व्यावहारिक स्तर पर लागू करना भी प्रशासन की जिम्मेदारी बनती है।
मौत के खौफ़ से अनजान बच्चे जाँच के लिए आए दलों को देखकर मुस्कुराते हैं।
यकायक हुए बदलावों और साफ़ चादरों को देखकर उल्लसित होते हैं तो सिर्फ इसलिए कि इतनी
अधिक संख्या में कोई उनकी खैर-खबर लेने आया है, कोई उनसे मिलने आया है। विमंदित गृह में जो बच्चे रहते हैं उन्हें ना
अपने खाने की सुध होती है ना ही रहन- सहन की। ऐसे में उन्हें उन नेहिल हाथों की ज़रूरत होती
है जो उनके बिखराव को समेट सके औऱ भावनात्मक संबल प्रदान कर सके। इन गृहों के
केयरटेकर्स को विशेष प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है।यहाँ यह बात भी ज़रूरी जान पड़ती
है कि ऐसे संस्थानों में उन्हें ही नियुक्त किया जाए जो वाकई समर्पण औऱ सेवाभाव के
साथ यहाँ आना चाहते हैं। परन्तु घटनाएँ इन सभी बातों को धता बताती हुई नज़र आती
है। वहाँ लाचार तन औऱ मन है तथा बेधड़क घूमती संवेदनाहीन औऱ लालची नज़रें। कैसी
लाचारगी होगी कि कोई हलक अपनी प्यास को भी
अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा है औऱ उनकी देखभाल करने वालों को उनके पानी पीने की भी
सुध नहीं है। यह सोच ही सिहरन पैदा करती है कि उनकी और बुनियादी आवश्यकताओं को किस
तरह पूरा किया जाता होगा। चिकित्सक बता
रहे हैं कि बच्चे जब अस्पताल लाए गए तब वे ऐसी स्थिति में थे कि उन्हें बचाना
नामुमकिन था। बालगृह के कर्मचारियों ने उन्हें पानी पिलाने का भी ख्याल नहीं रखा।
जानकार बताते हैं कि नियमानुसार ऐसे गृहों में प्रशिक्षित कर्मियों के साथ-साथ, एक
डॉक्टर, नर्सिंग स्टॉफ, महिला कर्मी और
मनोचिकित्सक का होना अनिवार्य है साथ ही इन आवासीय ग़ृहों में हवा- पानी
तथा सफाई व्यवस्था का उचित प्रबंधन भी होना चाहिए। परन्तु ये गृह इन मापदंडों को
पूरा नहीं करते। और ऐसे में अनेक तारें जमीन पर बिखरते नज़र आते हैं। शायद आदर्श
गृह की परिकल्पना केवल रूपहले पर्दे पर ही दिखाई देती है औऱ वास्तविक जमीन कितनी
उबड़- खाबड़ है यह बात हमारे सामने ऐसे हादसे लाते हैं जिनकी मौत का कोई मोल नहीं
है । अनेक विमंदित गृहों की सच्चाईयाँ अब
हमारे सामने आ रही है जो व्यवस्था की पोल स्वयं खोल रही है परन्तु बिछड़ती और यातना भोगती साँसें चीत्कार
करती हुई हमारी मानवता पर प्रश्नचिन्ह स्वयं खड़े करती हैं। कभी कोई विक्षिप्त ऐसे
ही किसी गृह में आग से झुलस जाता है तो कभी कोई समुचित देखरेख और मूलभूत समस्याओं
के अभाव में अपनी जान गवा बैठता है। आखिर इन सबकी जवाबदेही कौन तय करेगा।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को छूते ऐसे हादसों में कर्मचारी से लेकर विभाग के
आलाधिकारी सभी जिम्मेदार होते हैं जो अव्यवस्थाओं को आँख मूँदकर ऩजरअंदाज करते
हैं।
गौरतलब है कि ऐसे संस्थानों में कई दान- दाता भी इन बच्चों की देख-रेख के लिए
मोटी रकम देते हैं। यह पैसे जिन सुविधाओँ तक पहुँचने चाहिए वहाँ ना पहुँचकर उऩ जेबों
में पहुँच जाते हैं जहाँ बस स्वार्थ बसता है।
यह देश की अकेली घटना नहीं है जहाँ
ऐसी घिनौने हालात देखने को मिल रहे हैं।बीते दिनों तेलगांना के करीमनगर से भी ऐसी
ही घटना सामने आती है जहाँ अबोध बच्चों के खाना खाने पर आनाकानी करने पर केयरटेकर
उऩ्हें गर्म चम्मच से दागती है। रूआँसी आँखें औऱ बेबस साँसें सब कुछ चुपचाप सहती
हैं। वस्तुतः ये सभी घटनाएं लापरवाही को तो बयां करती ही है परन्तु यह भी बताती है
कि आखिर मनुष्यता स्वार्थ औऱ लालच के मोहजाल में फँसकर किस तरह हाशिए पर सरक गयी
है। लगातार घट रही इऩ अमानवीय घटनाओं पर रोक लगाने के लिए सरकार के पुरजोर दखल की
आवश्यकता है। केवल कुछ अधिकारियों को अपदस्थ करके मामले को खारिज नहीं किया जा
सकता क्योंकि सवाल धड़कती सांसों की अनुपस्थिति का है। सवाल और घोर आक्रोश सरकार
के प्रति भी है क्योंकि यह सभी सरकारी
अनुदान प्राप्त संस्थानों में ही घट रहा है। निजी हाथ अगर अबोध जीवन को संभालने
में आगे आए तो सरकार को यह जिम्मेदारी उन्हें बेझिझक सौप देनी चाहिए। ऐसे सभी
संस्थान कुशल निर्देशन और रख-रखाव के साथ समर्पण की माँग करते हैं। सरकार और
संबंधित अधिकारियों को ऐसे सभी गृह, संस्थान जो आश्रितों के लिए बने हैं उनमें
सेवा-भाव से युक्त कर्मचारियों को ही नियुक्त करने तथा तमाम मापदण्ड पूरे करने जैसे
कुछ बुनियादी कदम उठाने होंगें अन्यथा इन संस्थानों का औचित्य कुछ संचालकों की जेब
भरने तक ही सिमटा रहेगा । इन स्थानों पर हैवानियत , अमानवीयता औऱ दुराचार को रोकने के तमाम प्रबंधनों से ही इन संस्थानों
की सुरक्षा तय की जा सकती है अन्यथा जिस जीवंत मानवीय भारतीय संस्कृति के दया,
माया, ममता जैसे सनातन गुण लेकर हम आगे
बढ़े हैं वह कहीं रीत जाएगी औऱ हमारी संस्कृति संवेदनाहीन ज्वालामुखी के क्रूर मुहाने पर खड़ी नज़र आएगी।
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