Wednesday, May 25, 2016

अबोला एकांत


माँ! यह सूरज निकलता है तो पंछी कितनी खुशी से मौज में उड़ते हैं ना....जैसे कि बांँहे पसार कर कायनात के इस  चमकीले सिकंदर का स्वागत कर रहे हों.. क्या इसके निकलने से पहले वो भी सोते रहते हैं अपनी माँ के पास...?
यह हवा देखो यह भी उसके निकलते ही कैसी जोर से चलने लगती है...?
और ये बादल क्यों नहीं रोज ही इन पहाड़ो पर टिके रहते हैं..थोड़ी ही देर में क्यों कहीं दूर चले जाते हैं?
उन दोनों का शगल था रोज सुबह उस पहाड़ी के पीछे के सूरज को निकलते हुए देखना.. और यूँ ही सवाल- जवाब करना...
आज ध्रुव कुछ उदास था..उसकी निंदासी आँखों की पलके कुछ अधिक भारी थी..उसने इस उदासी के रंग को ज़ज्ब ही किया था कि वह तपाक से बोल उठा..
माँ! आज स्कूल नहीं जाना..
माँ.. आज सच नहीं जाना..
उसने आँचल में दुबकते हुए कहा था...
उसने सहलाते हुए हाथों ने उसका मुँह उठाया और कहा ठीक है नहीं जाना तो नहीं जाएँगें...आज मैं भी नहीं जा रही आॅफिस पर मेरे शहजादे को बताना होगा कि क्या बात है औऱ क्यों नहीं जाना...
माँ  देखो ना.. मेरे साथ कोई नहीं खेलता...सब को कॉपी चेक कराते वक्त ए वन मिलता औऱ मुझे कुछ भी नहीं...कोई बोलता भी नही...माँ मुझे बहुत अकेला लगता है जैसे कोई भी  मेरे साथ नहीं. औऱ यह सब कहते हुए वे कमल से कोटर डबडबा गए थे..
अरे अरे देखूँ तो ज़रा ये मोती मुझे हथेली बीच सहेजने दो कहीं ढुलक ना जाए...उसने उस नरम फोहे को गोद में उठाया और नाक से नाक सहलाकर बुगली बुगली वुश किया ..दोनों खिलखिला उठे..उसी खिलखिलाहट के बीच नरम हथेलियों को हथेलियों का ताप देते हुए कहा कि देखों उस सूरज को देख रहे हो ना ..वो अकेले डूबता है और अकेला ही उगता है ..रोज..शिकायत उसे भी होती है पर नींद के आगोश में सोते हुए वो खुद को फिर- फिर समझाता है ...औऱ समेट लेता है सारी ऊर्जा अपने ठंडे पड़े अहसासों की...फिर उग आता है..ये पंछी मचलते हैं उसे देखकर औऱ हवाएं कोई अनजाना सुर छेड़ती है जिसे अब तक गाया न गया हो.. । सूरज और चाँद आकाश के छोर पर तेजी से चमकते हुए भी , सबके बीच जीते हुआ भी, सबसे अकेले होते हैं....तो इसे यूँ समझो कि जो अलहदा होता है वो  सबसे जुदा होता है । वो कुछ अकेला होता है..क्योंकि वो कुछ अलग सोचता है औऱ यूँ सबके बीच रहता हुआ भी  कुछ टूट जाता है अक्सर उसके भीतर.. गहरे तक ..                        
माँ तो मैं भी क्या सूरज और चाँद सा स्पेशल हूँ...                 हाँ तुम बिल्कुल वैसे हो ...
नहीं माँ! मैं उससे भी स्पेशल हूँ क्योंकि मेरे पास तुम हो..वो चहक उठा था उन्हीं परिन्दों की तरह..
वो हँस दी थी.. और इसी हँसी के साथ कुछ सोचते हुए वह कहने लगी...
ध्रुव ध्यान रखना कि जिंदगी अपने इम्तिहान का परिणाम जारी करते हुए भले तुम्हारा नाम सबसे ऊँचे मुकाम पर ना टैग करे पर कोई ना कोई मुकाम सभी के लिए तय होता है..  इन मुकामों की दौड़ में उलझने के बजाय हर एक दौड़ को दिल से दौड़ने की उस मासूम  ख़्वाहिश को सदा जीवित रखना...वो तुम्हें भी रस देगी ..ठीक वैसे ही जैसे बारिश की बूँदे हर मन को भीगो देती है..और कर देती है नम...
उसके फिसलते बाल बार बार उसके कोमल गालों पर आ रहे थे और एक बीती याद की याद दिला रहे थे..माँ चुप क्यों हो जाती हो कहते –कहते ..कहो ना मुझे तुम्हारे बोल बहुत भाते है...और वो अचानक कह उठी थी ध्रुव तुम ऐसे ही रहना इतने ही मासूम ...कुछ बचा पाओ तो बचा लेना अपना यह भोलापन...अपनी यह मासूमीयत औऱ अपनी मानवता...मैं जानती हूँ कई बार अकेला मन निराश हो जाता है पर तुम आस की डोर कभी ना हारना...मैं बाँहें फैलाए सदा सदा तुम्हारा इंतजार करती रहूँगी..दिल के कोने मैं झाँकना औऱ मेरी मुस्कुराहट तुम्हारी उदासी को हर लेगी.. सोचो जरा..हमारे यह अहसास ही जीने की खुराक होती हैं  औऱ हर जिंदगी के अपने मायने होते हैं ..
बातों का सिलसिला तोड़ते हुए उसने उसके शून्य में ताकते चेहरे को हाथ से  अपनी ओर” करते हुए कहा, माँ! पर दुनिया की सबसे अजीब चीजें हमारे साथ ही क्यों होती है..अरे बुद्धु बक्से, बताया तो कि हम स्पेशल हैं...और ध्रुव अजीब जैसा कुछ नहीं हैं बस हर जीवन का अपना एक अलग राग है..हर जीवन के अपने आँसू है औऱ अपनी हँसी...होता यह है कि हम बस उजली हँसी को देख पाते हैं उसके पीछे छिपे आँसूओं की नमी को हम अपनी ईर्ष्या से छिपा देते हैं...
अब तुम गौर करना हर एक के जीवन को अगर यह बात फिर कभी तुम्हारे मन में आए तो...अच्छा देखो, वो प्रेस वाले अंकल का लड़का बुधिया है ना उसे ही देखो तुमसे चार साल ही तो बड़ा है ..माँ नहीं है ना उसके पास जिसे तुम जीवन की पहली ज़रूरत मानते हो..और वो तुम्हारी मंदिर वाली नानी जिसकी नाती श्रुति तुम्हें नकचढ़ी लगती है उसने हाल ही में एक रोड एक्सीडेंट में अपने माता-पिता को खोया है...ध्रुव उससे वो यादें, वो शहर भी छूट गया जहाँ वो किसी शहजादी की तरह पल रही थी...यह तो कुछ दुख भरी मिसालें है बेटू ..जीवन वाकई कठोर होता है, बस हमारे जीने का तरीका उसे आसां बना देता है...और जीतता वही है जो चलता रहता है, लगातार...
चलना जीतने की निशानी है..और यह जो हँसी है ना जिससे तुम्हारे चेहरे पर एक नूर आ जाता है वो होता है जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार...मालूम!  कहीँ नीली चप्पलों को पैर नहीं नसीब होते और कहीं पैरों को वो नीली चप्पलें... जो शिखर पर है वो धराशयी हो सकता है औऱ जो रेत की खाक छान रहा होता है वो सर माथे पर चमक सकता है ...कुछ भी तो स्थायी नही...इसलिए नहीं सोचो कि कोई तुमसे बात नहीं करता...कभी कोई बात खुद ही आगे से कर लो...कभी किसी नम आँख को देखो तो उसे मुस्कुराने की एक छोटी सी वज़ह दे दो... कभी किसी खेल को खुद ही शुरू कर दो ...देखना कारवां बन जाएगा...देर बस शुरू करने की होती है...देर बस खुद से बाहर निकलने की होती है...
ओ माँ आज देर हो गई मैं पौधों को पानी नहीं दे पा रहा आप दे देना...और मेरा टिफिन रख दो सिर्फ पन्द्रह मिनट है मेरे पास..ध्रुव की आँखों में एक चमकीली रोशनी थी....वो टिफिन थमाते हुए उसके चेहरे पर घिर आए बालों को देख रही थी तो कभी खुशी से दमकते चेहरे को..माँ मैं यह खट्टा आम दो एक्सट्रा ले जा रहा हूँ गले में अपनी बाँहे डालते हुए कह रहा था.... किसी की खुशी के लिए.. उसने आँखे बंद करते हुए हामी भर दी थी वह बस उसे देख रही थी औऱ उस की खुशी को जी रही थी...वो गेट से स्कूल बस की औऱ भागते हुए कदमों को दूर तक निहार रही थी...कदम ओझल हो गए थे और उस पगडंडी पर  एक बिन्दू उग आया था... आँखों से भावनाएं सब्र का बाँध तोड़ बिखर गयी थी...लौटती पगडंडी से उसके साथ उतर आया था उसका एकांत जो किसी काँधे  को खोज रहा था.....
काँधे उसी के कहे शब्द थे, 'जो अलहदा होता है ना वो अक्सर अकेला छूट जाता है....'
पास ही कहीं..पर दूर से ..दो आँखें बालकनी से एक सूरज को डूबते औऱ एक को उगते जाने कबसे देख रही थी...

Tuesday, May 17, 2016

रीतती संवेदनाएं और बेबस आमजन


हम एक हादसा भूला भी नहीं पाते हैं कि दूसरा मुँह बाए खड़ा हो जाता है। जयपुर के जामडोली विमंदित गृह की त्रासदी के बाद अब मोतों का सिलसिसा ज़ारी है अजमेर के जेएलएन अस्पताल में। यहाँ एक रात में चंद घंटों में लगातार छः नन्हीं मौतें होने के पश्चात् , थमी सांसों का यह आँकड़ा आठ तक पहुँच गया है। सवाल सिर्फ़ एक कि, क्या सिलसिलेवार हुई इन बंद सांसों का कारण, गंभीर बीमारी, महज़ इत्तफाक या नियति को ही माना जा सकता है?

यहाँ के सरकारी अस्पताल में संवेदनहीनता चरम पर है, नवजात लगातार दम तोड़ रहें हैं और उस पर यह बयानबाज़ी कि, ' बच्चे तो हमेशा मरेंगे, मृत्यु प्रकृति का नियम है' आमजन में रौष पैदा करने के लिए काफ़ी है। ऐसी घटनाएं घटती हैं, कुछ गोदें सूनी हो जाती है, कुछ आँसू घटना की अविश्वसनीयता पर ही थम जाते हैं और जान बचाने के खैरख्वाह कह डालते हैं कि मौत तो प्रकृति का नियम है। सीधा सीधा सवाल है उन तथाकथित रहनुमाओं से कि अगर मौत प्रकृति का नियम है तो आप आखिरकार किस जिम्मेदारी का वहन करने के लिए मोटी तनख्वाह ले रहे हैं।


गौरतलब है कि अजमेर के सरकारी अस्पताल की अव्यवस्थाओं पर यहाँ की पूर्व कलेक्टर आरूषि मलिक ने भी सवाल उठाए थे । निरीक्षण सदा से होते आए हैं औऱ उस समय व्यवस्थाएँ भी चाक चौबंद कर दी जाती है और उसके पश्चात् हालात वही ढाक के तीन पात।  निरीक्षणों में कई बार खामियां पायी जाती है..उन खामियों पर कार्यवाहियों के पुलिंदे बंधते हैं पर अव्यवस्थाओं की सुरसा फिर भी  अपना कद बढ़ाती ही जाती है। यहाँ के  फटे बदहाल बैड और गंदगी का बेमाप प्रसार  महज़ किसी एक सरकारी अस्पताल की तस्वीर नहीं है बल्कि राज्य भर के सरकारी अस्पताल इस दृष्टि से अपनी विशेष पहचान रखते हुए उभर रहे हैं।
अन्य घटनाओं की तरह ही इस घटना पर भी सवाल उठते हैं पर जाँच कमेटी चिकित्सकों को क्लीन चिट दे देती है। एक सीधा सीधा सवाल यह है कि रात में आखिरकार अस्पताल में कोई वरिष्ठ चिकित्सक मौजूद क्यों नहीं था। अगर नवजात शिशुओं की हालत वाकई नाज़ुक थी तो उन्हें आखिर किस के भरोसे छोड़ वे इत्मीनान की नींद लेने चले गए। सवाल यह भी है कि पहली मौत के बाद भी सतर्कता क्यों नहीं बरती गई। दरअसल अव्यवस्थाओं को खोजा जाए तो पहाड़ सा ढेर लग जाएगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि सारा सरकारी तंत्र निजी को ही प्रोत्साहित करने में अपनी ऊर्जा लगा रहा है।
वर्तमान में  हर सरकारी महकमें का हाल यही है चाहे वह शिक्षा से जुड़ा हो या फिर स्वास्थ्य से। आम आदमी अनुभवी चिकित्सकों को देखकर तो वहीं निम्न वर्ग कम फीस जैसे कारणों औऱ विश्वसनीयता के चलते, इन अस्पतालों की ओर रूख करता है। एक नवजात जिसकी मौत हो चुकी है, के पिता का कहना है कि मेरी मति खराब हो गयी थी कि मैं उसे अजमेर लेकर आय़ा।  सही है, लगातार घट रहे ऐसे हादसे  अब खौफ पैदा करते हैं। चरम पर पसरी अव्यवस्थाओं और यमदूत बन बैठे चिकित्सकों को देख अस्पताल अब वाकई मौत की शरणस्थली बन गए हैं ।अब  तो आलम यह है कि बीमार होने से ज़्यादा अस्पताल जाने से डर लगने लगा है।
यहाँ के ही टी. बी. अस्पताल में मरीज़ जिंदा जल जाता है। अस्पताल प्रशासन को यह तक पता नहीं रहता कि यहाँ कितने मरीज भर्ती है। कोई मरीज अगर गायब है तो वह कहाँ है औऱ क्यूँ है। यहां का जनाना अस्पताल प्रसूताओं की ठीक से देखभाल नहीं कर पाता। अस्पतालों में वरिष्ठ चिकित्सक और फर्स्ट ग्रेड स्टाफ  नदारद रहता है ओर रेजिडेंट्स के सहारे अस्पतालों की रातें गुज़रती हैं । तो सोच लीजिए की  शहर का मुख्य अस्पताल किन हालातों में  और किस तरह से चल रहा है। यहाँ के वार्ड की सफाई व्यवस्था देख कर ही किसी स्वस्थ व्यक्ति को चक्कर आ सकते हैं और शौचालयों की स्थिति तो बयां भी नहीं की जा सकती ।  कहना होगा कि मौतों से जुड़े ये मामले  सीधे – सीधे लापरवाहियों से जुड़े  हैं औऱ  ऐसे में दोष तो अस्पताल प्रशासन का ही ठहरता है।
आखिर क्यों लाख बार मुद्दे उठ जाने पर भी किसी सरकारी अस्पताल में सफाई व्यवस्था तक बरकरार नहीं रह पाती। आखिर क्यों निरीक्षण के चंद मिनटों पहले आई. सी. यू, का ऐसी ठीक किया जाता है और गंदी चादरों को बदला जाता है। अब तो यूँ लगता है कि हर महीने ही निरीक्षणों की अफवाह उड़ा देनी चाहिए जिससे कुछ समय के लिए ही सही व्यवस्थाएं सुचारू रूप से लागू तो हो जाएं। गौरतलब है  कि अजमेर का सरकारी अस्पताल संभाग का मुख्य अस्पताल है , जहाँ पर नागौर ,नसीराबाद , ब्यावर तथा आस-पास के ग्रामीण इलाकों के अतिसंवेदशील मामले इसलिए रैफर किए जाते हैं कि वहाँ इन मौत से जूझती सांसों को कुछ कैफियत नसीब होगी पर हालात और नतीजे हमारे आपके सामने हैं। इन सब के बीच यह भी उल्लेख करना ज़रूरी है कि यहाँ का 6047 करोड़ का हैल्थ बजट है फिर भी शिशु मृत्यु दर में राजस्थान का देश में तीसरा स्थान है। इंडियास्पैंड ने पहले ही अपनी रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना में भारत का स्वास्थ्य देखभाल व्यय सबसे कम है।
माना सरकारी महकमों की अपनी कमियाँ है , बाध्यताएं हैं पर जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता से कतई मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। आखिर क्या कारण है कि वरिष्ठ चिकितसक घर पर रात दस- दस बजे तक अपनी जेबें गरम करने के लिए मरीजों की लंबी कतारों को निबटाते हैं और सरकारी अस्पतालों में चंद मरीजों के बढने पर ही झूँझला उठते हैं। तिस पर डॉक्टरों की ह्रदयहीन टिप्पणियां सुनसुनकर आहत मन छलनी हो उठता है।
शायद हालात यही रहेंगें, हम और आप यूँ ही गरियाते रहेंगे और सरकारी महकमें मौतों का नित नया कीर्तिमान यूंही खड़ा करते रहेंगे। ऐसे में राहत का विकल्प तलाश करते हम बेबसी में या तो शब्दों के माध्यम से अपना आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं या प्रार्थना कि किसी को भी इन अव्यवस्थाओं के आगारों का मुँह ही नहीं देखना पड़े जहाँ मौत अपना क्रूरतम खेल खेलती है।

चिंता की बात यह है कि हमारे प्रभु वर्ग को यह कभी नहीं लगता कि नियम कायदे और जिम्मेदारी से सारे काम करवाए जाए। अगर तुलना की जाए तो निजी क्षेत्रों में ऐसी घटनाओं से निबटने के लिए एक विशेष तंत्र गठित होता है और  तमाम स्थितियाँ उन  हाथों में रहती है आखिर क्यों नहीं एक तंत्र यहाँ भी विकसित किया जाए जो कि जवाबदेही तय करना जानता हो । आखिर क्यों ऐसे सभी मामले सरकारी महकमों से ही जुड़े होते हैं।  इन त्रासदियों से  समझ में आता है कि मामला सीधा – सीधा लापरवाही  और संवेदनहीनता से जुड़ा है।  हम चाहे कितनी ही प्रगति कर लें ,अगर इन जमीनी समस्याओं पर काबू नहीं पाया जा सकता तो हमारी आसमानी बुलंदियाँ वाकई बेमानी है। अगर आमजन राहत की साँस लेने में असमर्थ है , व्यावसायिक प्रतिबद्धता अगर संदेह के घरे में है तो इस खतरे की संस्कृति की और बढ़ने कदमों पर पुनर्विचार की सख्त ज़रूरत है।



Monday, May 2, 2016

तारे जमीं पर...


कहीं भावनाएँ बरबस पिघलती है तो कहीं जरुरी ताप की उपस्थिति में भी सख्त बर्फ सी जमी रहती है, यही नज़र आ रहा है  जामडोली के विमंदित गृह की  उधड़ती तस्वीरों और भयावह सच की परतों से जो हर मन को उद्वेलित कर रही है। 16 अप्रेल से वहाँ कुछ सांसें बोझिल थी , दो दिन बाद कुछ थम गय़ी और फिर चल पड़ा  थमी साँसों में इजाफ़ा होने का एक निरन्तर सिलसिला जो शायद  उन सांसों के ,तमाम लापरवाहियों और यंत्रणाओँ से आजाद होने का एकमात्र नैसर्गिक प्रतिरोध का  रास्ता था। ये  हादसे खौंफ पैदा करते हैं, साथ ही  विभागों,संबंधित अधिकारियों और सरकार की गैर जिम्मेदार जवाबदेही औऱ लापरवाही की पोल खोलते नज़र आते हैं। जयपुर के समीप  जामडोली के विमंदित गृह में बीते एक पखवाड़े में 12 बच्चों की मौत गंदे पानी के कारण  हुए हैजे से हुई। जाँच जारी है और रोजाना चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं।  खाने – पीने में अनियमितता, सफाई का अभाव और फटे कपड़ों में  लिपटे बेबस शरीरों के चित्र हर किसी के मन को द्रवित कर देते हैं, परन्तु विडम्बना है कि उनके देख-रेख करने वालों की आँखें बस अपने स्वार्थ पर टिकी थी । गौरतलब है कि विमंदित गृह में वे सांसे बसती है जिन्हें अतिरिक्त देख-रेख की आवश्यकता होती है । वे मानसिक रूप से कुछ पिछ़ड़े होते हैं । उनके सपने चिरैया से दूर आसमां में उड़ गए हैं और उनकी दुनिया की आस का सूरज उन चहारदीवारों की  दरारों से झाँकता हुआ भी दिखाई नही पड़ता।  हम ज़रा सी असुविधा पर झुंझला उठते हैं पर विमंदित गृहों में जिन अनियमितताओं का आलम है वह सोच और समझ से परे हैं। ये लापरवाहियाँ आक्रोश पैदा करती है, संवेदनाओं को झकझोरती है औऱ  अनेक सवाल खड़े करती है। अखबारों में छपी तस्वीरें बयां करती है कि ये गृह यातनाओँ के केन्द्र बन  गए हैं और इनके संचालक लोभ के पुतले, जिनकी मानवीय संवेदनाएँ चुक गयी हैं।
जिस बालगृह की बात यहाँ की जा रही है वहाँ 200 के आसपास बच्चे रहते हैं। बताया जा रहा है कि प्रत्येक बच्चें के लिए सरकार 4000 सालाना कपडों पर और 1850 प्रतिमाह खाने पर खर्च करती हैं। परन्तु फटी आँखें और उघड़ते तन इन आँकड़ों की सच्चाई को नकारते हैं। मासूम आँखें सवाल करती नज़र आती है कि केवल अनुदान दे देना ही अपने कर्तव्य से इतिश्री पा लेना है या उन्हें व्यावहारिक स्तर पर लागू करना भी  प्रशासन की जिम्मेदारी बनती है।
मौत के खौफ़ से अनजान बच्चे जाँच के लिए आए दलों को देखकर मुस्कुराते हैं। यकायक हुए बदलावों और साफ़ चादरों को देखकर उल्लसित होते हैं तो सिर्फ इसलिए कि इतनी अधिक संख्या में कोई उनकी खैर-खबर लेने आया है, कोई उनसे मिलने आया है।  विमंदित गृह में जो बच्चे रहते हैं उन्हें ना अपने खाने की सुध होती है ना ही रहन- सहन की।  ऐसे में उन्हें उन नेहिल हाथों की ज़रूरत होती है जो उनके बिखराव को समेट सके औऱ  भावनात्मक संबल प्रदान कर सके। इन गृहों के केयरटेकर्स को विशेष प्रशिक्षण की ज़रूरत होती है।यहाँ यह बात भी ज़रूरी जान पड़ती है कि ऐसे संस्थानों में उन्हें ही नियुक्त किया जाए जो वाकई समर्पण औऱ सेवाभाव के साथ यहाँ आना चाहते हैं। परन्तु घटनाएँ इन सभी बातों को धता बताती हुई नज़र आती है। वहाँ लाचार तन औऱ मन है तथा बेधड़क घूमती संवेदनाहीन औऱ लालची नज़रें। कैसी लाचारगी होगी कि कोई हलक  अपनी प्यास को भी अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा है औऱ उनकी देखभाल करने वालों को उनके पानी पीने की भी सुध नहीं है। यह सोच ही सिहरन पैदा करती है कि उनकी और बुनियादी आवश्यकताओं को किस तरह पूरा किया जाता होगा।  चिकित्सक बता रहे हैं कि बच्चे जब अस्पताल लाए गए तब वे ऐसी स्थिति में थे कि उन्हें बचाना नामुमकिन था। बालगृह के कर्मचारियों ने उन्हें पानी पिलाने का भी ख्याल नहीं रखा। जानकार बताते हैं कि नियमानुसार ऐसे गृहों में प्रशिक्षित कर्मियों के साथ-साथ, एक डॉक्टर, नर्सिंग स्टॉफ, महिला कर्मी और  मनोचिकित्सक का होना अनिवार्य है साथ ही इन आवासीय ग़ृहों में हवा- पानी तथा सफाई व्यवस्था का उचित प्रबंधन भी होना चाहिए। परन्तु ये गृह इन मापदंडों को पूरा नहीं करते। और ऐसे में अनेक तारें जमीन पर बिखरते नज़र आते हैं। शायद आदर्श गृह की परिकल्पना केवल रूपहले पर्दे पर ही दिखाई देती है औऱ वास्तविक जमीन कितनी उबड़- खाबड़ है यह बात हमारे सामने ऐसे हादसे लाते हैं जिनकी मौत का कोई मोल नहीं है । अनेक विमंदित गृहों की  सच्चाईयाँ अब हमारे सामने आ रही है जो व्यवस्था की पोल स्वयं खोल रही है  परन्तु बिछड़ती और यातना भोगती साँसें चीत्कार करती हुई हमारी मानवता पर प्रश्नचिन्ह स्वयं खड़े करती हैं। कभी कोई विक्षिप्त ऐसे ही किसी गृह में आग से झुलस जाता है तो कभी कोई समुचित देखरेख और मूलभूत समस्याओं के अभाव में  अपनी जान गवा  बैठता है। आखिर इन सबकी जवाबदेही कौन तय करेगा। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को छूते ऐसे हादसों में कर्मचारी से लेकर विभाग के आलाधिकारी सभी जिम्मेदार होते हैं जो अव्यवस्थाओं को आँख मूँदकर ऩजरअंदाज करते हैं।
गौरतलब है कि ऐसे संस्थानों में कई दान- दाता भी इन बच्चों की देख-रेख के लिए मोटी रकम देते हैं। यह पैसे जिन सुविधाओँ तक पहुँचने चाहिए वहाँ ना पहुँचकर उऩ जेबों में पहुँच जाते हैं जहाँ बस स्वार्थ बसता है।

यह  देश की अकेली घटना नहीं है जहाँ ऐसी घिनौने हालात देखने को मिल रहे हैं।बीते दिनों तेलगांना के करीमनगर से भी ऐसी ही घटना सामने आती है जहाँ अबोध बच्चों के खाना खाने पर आनाकानी करने पर केयरटेकर उऩ्हें गर्म चम्मच से दागती है। रूआँसी आँखें औऱ बेबस साँसें सब कुछ चुपचाप सहती हैं। वस्तुतः ये सभी घटनाएं लापरवाही को तो बयां करती ही है परन्तु यह भी बताती है कि आखिर मनुष्यता स्वार्थ औऱ लालच के मोहजाल में फँसकर किस तरह हाशिए पर सरक गयी है। लगातार घट रही इऩ अमानवीय घटनाओं पर रोक लगाने के लिए सरकार के पुरजोर दखल की आवश्यकता है। केवल कुछ अधिकारियों को अपदस्थ करके मामले को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि सवाल धड़कती सांसों की अनुपस्थिति का है। सवाल और घोर आक्रोश सरकार के प्रति भी  है क्योंकि यह सभी सरकारी अनुदान प्राप्त संस्थानों में ही घट रहा है। निजी हाथ अगर अबोध जीवन को संभालने में आगे आए तो सरकार को यह जिम्मेदारी उन्हें बेझिझक सौप देनी चाहिए। ऐसे सभी संस्थान कुशल निर्देशन और रख-रखाव के साथ समर्पण की माँग करते हैं। सरकार और संबंधित अधिकारियों को ऐसे सभी गृह, संस्थान जो आश्रितों के लिए बने हैं उनमें सेवा-भाव से युक्त कर्मचारियों को ही नियुक्त करने तथा तमाम मापदण्ड पूरे करने जैसे कुछ बुनियादी कदम उठाने होंगें अन्यथा इन संस्थानों का औचित्य कुछ संचालकों की जेब भरने तक ही सिमटा रहेगा । इन स्थानों पर हैवानियत , अमानवीयता औऱ दुराचार  को रोकने के तमाम प्रबंधनों से ही इन संस्थानों की सुरक्षा तय की जा सकती है अन्यथा जिस जीवंत मानवीय भारतीय संस्कृति के दया, माया, ममता जैसे  सनातन गुण लेकर हम आगे बढ़े हैं वह कहीं रीत जाएगी औऱ हमारी संस्कृति संवेदनाहीन ज्वालामुखी के  क्रूर मुहाने पर खड़ी नज़र आएगी।