राजनीति भी अजीब शै है,कब किस तरह किस मुद्दे
को राई का पहाड़ बना दिया जाए और पहाड़ को राई यह बात राजनीति के जानकार और
खिलाड़ी बखूबी जानते हैं। दोषा –प्रत्यारोप तक तो ठीक है परन्तु जब संवैधानिक
व्यवस्था को ही चुनौती दी जाती है तो बात चिंता पैदा कर देती है। हाल ही में
सम्पन्न पाँच विधानसभा चुनावों में अनेक पार्टियों द्वारा ईलेक्ट्रोनिक वोटिंग
मशीन को लेकर खुलकर बयानबाजी और बहस हुई थी। जो दल हार का मुँह देक रहा था उसी को
चुनाव आयोग से शिकायत हो रही थी। इसी के मद्देनजर आयोग ने 12 मई को ईवीएम से
संबंधी गड़बड़ी की शिकायतों को लेकर आयोजित सर्वदलीय बैठक के बाद मान्यता प्राप्त
और सभी राजनीतक दलों को खुली चुनौती में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया । 3 जून को आयोजित होने वाली इस चुनौती को स्वीकार
करने के लिए 26 मई तक राजनीतिक दलों को आवेदन करना था लेकिन निर्धारित समय सीमा तक
केवल दो दलों ने आवेदन किया । अनेक दलों द्वारा तरह-तरह के आरोप लगाए जाने के
बावजूद सिर्फ दो दलों एन.सी.पी. औऱ माकपा ने आवेदन किया और वे ही चुनौती के लिए
आगे भी आए। पर उनका यह आना चुनौती के लिए ना होकर प्रक्रियागत जानकारी लेना ही
अधिक साबित हुआ। मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी के अनुसार दोनों दलों के
प्रतिनिधियों ने ईवीएम हैक करने के बज़ाय मशीन के तकनीकी पहलुओं की भ्रांतियों को
दूर करने का आग्रह किया । उनकी माँग के मुताबिक चुनाव आयोग ने उनकी माँग को
स्वीकारते हुए मशीन संबंधी तकनीकी पहलूओं पर सविस्तार जानकारी दी।
पहले ईवीएम पर आरोप लगाने और फिर उससे पल्ला
झाड़ लेने का मामला बचकाना लगता है फिर भी चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के
सक्रिय सहयोग का स्वागत करते हुए कहा कि इससे देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की
स्थापना में मजबूती प्राप्त होगी। इससे पूर्व आप पार्टी ने भी ईवीएम मशीन की
कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाए थे परन्तु उसने भी आयोग की जाँच प्रणाली से खुद
को अलग कर अलग जाँच करने का निर्णय लिया। पंजाब चुनावों में इस मुद्दें में आप की
विरोधाभासी बयानबाजी समझ से परे रही है।
ईवीएम का प्रयोग पहली बार 1982 में केरल
विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ। तब तक भारत में आरपी एक्ट,1951 के तहत मतपत्र और
मतपेटी का ही प्रयोग होता आ रहा था,चुनाव आयोग ने तब भारत सरकार से कानून में
संशोधन का आग्रह किया। चुनाव आयोग ने अपनी
आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए ईवीएम को चुनावी क्षेत्रों में उतारा। मुद्दा
हाइकोर्ट में भी गया और पिल्लै की जीत के बाद शांत भी हुआ। परन्तु ईवीएम पर यह बहस
आज भी जारी है। इस के बाद 1989-90 में विनिर्मित ईवीएम का प्रयोगात्मक आधार पर
पहली बार नवम्बर 1998 में आयोजित 16 विधानसभाओं के साधारण निर्वाचनों में इस्तेमाल
किया गया। ये निर्वाचन क्षेत्र राजस्थान, मध्यप्रदेश औऱ राष्ट्रीय राजधानी
क्षेत्र, नई दिल्ली से संबंधित थे। साथ ही यह जानना भी ज़रूरी है कि जिस ईवीएम के लिए इतना बवाल मच रखा है उसके
बनाने में कई बैठको,प्रोटोटाइपों का परीक्षण औऱ व्यापक फील्ड ट्रायल भी किया गया
है। ईवीएम दो लोकउपक्रमों की सहायता से भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड,बेंगलुरू एवं
इलेक्ट्रोनिक कॉर्पोरेशन ऑफ,इण्डिया,हैदराबाद के सहयोग से निर्वाचन आयोग द्वारा
तैयार की जाती है। इसकी तैयारी,निर्माण एवं प्रयोग में गहन परीक्षणों से गुजरने के
बाद ही इसे प्रयोग के लिए निर्वाचन क्षेत्रों में उतारा गया है। ज़ाहिर है इसमें
निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता को शामिल करके ही लोकतंत्र के विश्वास के निवेश के तहत
लोकहित में तथा पर्यावरण हित में तकनीक का दामन साधा गया होगा। फिर भी अगर संशय रहता है तो वह चुनावों के बाद ही
क्यों सामने आता है, समझ से परे है।
ऐसा नहीं है कि यह विरोध पहली मर्तबा ही
दर्ज़ किया गया है । विरोधी पार्टियों द्वारा पूर्व में भी यह विरोध दर्ज़ करवाया
गया है। भारतीय
जनता पार्टी जो इन दिनों ईवीएम के इस्तेमाल का समर्थन कर रही है,
वह भी पूर्व में इसका विरोध
करने वाली राजनीतिक पार्टी रही है। वर्ष 2009 में जब भारतीय
जनता पार्टी को चुनावी हार का सामना करना पड़ा, तब पार्टी के
शीर्ष से वंचित रहे और वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने सबसे पहले ईवीएम की
कार्यप्रणाली और उसकी संदिग्धता पर सवाल उठाए थे। इसके बाद पार्टी ने भारतीय और
विदेशी विशेषज्ञों, कई गैर सरकारी संगठनों और अपने विचारकों
और विशेषज्ञों की मदद से ईवीएम मशीन के साथ होने वाली छेड़छाड़ और धोखाधड़ी को
लेकर पूरे देश में अभियान भी चलाया।
इस
अभियान के तहत ही 2010 में
भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और चुनावी
मामलों के विशेषज्ञ जीवीएल नरसिम्हा राव ने एक किताब लिखी- 'डेमोक्रेसी
एट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट ऑन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन?' इस किताब की प्रस्तावना लाल कृष्ण आडवाणी ने लिखी और इसमें आंध्र प्रदेश
के मुख्यमंत्री एन चंद्राबाबू नायडू का संदेश भी प्रकाशित है हालांकि इस पुस्तक
में वोटिंग सिस्टम के एक्सपर्ट स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डेविड डिल ने
भी बताया है कि ईवीएम का इस्तेमाल पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है।
भाजपा
के प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने किताब की शुरुआत में लिखा है- "मशीनों के
साथ छेड़छाड़ हो सकती है, भारत में
इस्तेमाल होने वाली इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन इसका अपवाद नहीं है. ऐसे कई उदाहरण
हैं जब एक उम्मीदवार को दिया वोट दूसरे उम्मीदवार को मिल गया है या फिर
उम्मीदवारों को वो मत भी मिले हैं जो कभी डाले ही नहीं गए।" यह उद्धरण किसी भी मशीन
के लिए सही है क्योंकि मशीन मानव निर्मित उपकरण ही तो है और ऐसा असंभव है कि उससे
छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।पर बात भारतीय निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली पर
प्रश्नचिन्ह लगाने को लेकर भी जुड़ी है। निर्वाचन आयोग चुनाव को लेकर अनेक
सावधानियाँ बरतता है, कड़ी निगरानी में मतदान प्रक्रिया को अंजाम देता है। सीलपैक
ईवीएम उपकरण मतदान स्थलों तक पहुँचाने से लेकर मतगणना तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया भी
विशेष निगरानी में होती है जिसमें अब वीवीपैट भी शामिल है। भारत में यह पहली बार
नहीं है जब इस तरह का हल्ला मचा है, भारत सहित अन्य देशों में भी इस तरह का विरोध
होता रहा है परन्तु अनेक विवादों के साथ ही विश्व के अनेक देशों में जहाँ इसका चलन
है वहाँ पेपल बैकअप के प्रावधान के साथ स्वीकार्य भी है,जिसे हमारे यहाँ भी अपनाया
गया है। बात इतनी सी है कि यह हंगामा हार के बाद ही क्यों बरपता है क्या ऐसा करना देश की संवैधानिक व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह
लगाने का अलोकतांत्रिक रवैया नहीं है? इस रवैये से तो यही तय होता है कि- “आईना देख अपना सा मुँह लेके रह गए....”
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