Thursday, June 29, 2017

सजग रहकर तोड़ना होगा सूचनाओं का भ्रमजाल




हर खबर का अपना सूचना तंत्र होता है। कभी यह तंत्र जनपक्षधर होकर   सामाजिक हित में जनता के साथ खड़ा होता है तो कभी महज सनसनी फैलाता है। यों हर प्रसारित सूचना का उद्देश्य भी होता है और फलादेश भी।समाज में परिवर्तन के साथ-साथ पत्रकारिता में भी बदलाव आया है।तत्काल खबरों की चुनौती से सोशलमीडिया के प्रयोग को बल मिला। कोई भी खबर हो, अब सोशल मीडिया के हवाले से चंद मिनटों में ही वायरल हो जाती है। पर नई सम्भावनाओं की इस तलाश ने खबरों की विश्वसनीयता को ध्वस्त कर दिया है। अब तक यह माना जाता था कि जो दिखता है,वो सच होता है संभवतः इसीलिए टी.वी. को अखबारों से अधिक महत्त्व मिला। उसी टी.वी का अगला पायदान फेसबुक, ट्वीटर,व्याटस एप्प हुए क्योंकि ये हर वर्ग की जद में हैं तथा लोकप्रिय साधन हैं। सोशल मीडिया के ये मंच दरअसल बेलगाम भी हैं। ये प्रसारण में तो तीव्र हैं पर उन पर नज़र रखने के लिए प्रभावी तीसरी आँख नहीं है जिसका नतीजा है कि इस पर झूठी खबरों का चलन बढ़ता जा रहा है।  ये मंच जो घटनाओं के समीकरण से अजान आम आदमी की जद में है, उसे भ्रमित करता है। ऐसी ही खबरों को आजकल  फेक न्यूज का नाम दिया गया है। ऐसा नहीं है कि ऐसी झूठी खबरों का बाज़ार सिर्फ और सिर्फ भारत में ही फल-फूल रहा है बल्कि पूरा विश्व इनकी जद में हैं। वैश्विक स्तर पर सरकारों द्वारा इन झूठी खबरों को प्रसारित करने का ताजा तरीन मामला अमेरिका राष्ट्रपति चुनावों का है। जिनमें से अगर बतौर उदाहरण देखें तो डेनवरगारजियन डॉट काम पर एक खबर इस हेडलाइन के साथ वायरल हुई कि हिलेरी इमेल लीक प्रकरण में जो संदिग्ध  एफ बी आई एजेन्ट था वह मर्डर या आत्महत्या के तहत मृत पाया गया। ऑनलाइन फेक न्यूज के मामले तब सामने आए जब अमेरिका ने 45 वें राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप को चुना। विश्लेषक व प्रभाव रखने वाले मीडिया ने हिलेरी की जीत को लेकर भविष्यवाणी की थी, लेकिन आम दर्शक गलत साबित हुआ । वास्तविकता, काल्पनिकता से बहुत अलग थी।  ऐसी खबरें जो कोई तीसरी आँख,कौतूहल को बढ़ाने के लिए उत्पादित करती है कई मर्तबा विरोधी दलों को लाभ या हानि पहुँचाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
फेक न्यूज की बड़ी श्रृंखलाएँ सोशल मीडिया के इन मंचों पर मौजूद हैं,पर जो बात चौंकाती है वह यह है कि सरकारें भी इन फेक न्यूज का उत्पादन अपनी सहूलियत और निजी स्वार्थों को साधने के लिए करती हैं। इसी बात का खुलासा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की कम्यूनिकेशन प्रोपेगेंड़ा रिसर्च प्रोजेक्ट नाम की एक रिपोर्ट में भी किया गया है। जिसमें एक स्वचालित कम्पयूटर स्क्रिप्ट का जिक्र है जो एक साथ कई लाख लोगों को भेजी जा सकती है और इसके जरिए ट्वीटर, फेसबुक और पेज पर लाइक्स और फालोवरस की संख्या और साझा की गई पोस्ट्स दिखाई जाती है। फॉक्स, यूटीवी,वायाकॉम 18,वार्नर ब्रास जैसी कंपनियां जिस तरह हमारे सिनेमा को नियंत्रित कर रही हैं उसी तरह सोशल मीडिया के फेक लाइक्स, फॉलोअरस जैसे आँकड़ें भी देश और विदेश की कई वेबसाइट्स के जरिए  इसी तरह परदे के पीछे से संचालित हो रहे हैं, ट्राई हो रहे हैं। ये घटनाएँ मीडिया की आजादी औऱ गिरती साख को तो बताती ही है पर जनतंत्र को भी भीतर से तोड़ कर रख देती है।
सोद्देश्य और जन पक्षधर लेखन की बजाय महज सनसनी बनाए रखने का, इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता    का यह स्याह पक्ष खौंफ पैदा करता है। इसमें आम आदमी कभी भी ट्रोल किया जा सकता है, सरे आम किसी पर भी पत्थर फेंका जा सकता है या कोई भी बेकाबू , अनिंत्रित और हिंसक, नमाजी भीड़ के हत्थे चढ़ सकता है। पिछले कुछ सालों में भारतीय राजनीति के अखाड़े में नेताओं के लिए सोशल मीडिया बेहद मारक और अचूक हथियार साबित हुआ है। पूर्व में भ्रष्टाचार के विरोध में हुए आंदोलन से इस मंच की ताकत का एहसास राजनीतिक पार्टियों को हो गया था। इसी जादू से प्रभावित होकर सभी राजनीतिक पार्टियों को इस ओऱ रूख भी करना पड़ा। लोकसभा चुनावों के बाद हालांकि इस पर बहस तेज हो गयी है  कि सोशल मीडिया के कितने फायदे हैं और कितने नुकसान पर फिर भी अपनी तरह से अनुकूल लहर फैलाने का काम सरकारों, राजनितिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं द्वारा जारी है। कुछ लोग एक मैमे बनाते हैं, जिसे ट्वीटर पर पोस्ट किया जाता है औऱ फिर वह व्हाट्स एप्प ग्रुप्स में चलने लगता है। न्यूयार्क टाइम्स में छपा लेख इन्हीं खतरों की ओर ध्यान खींचता है। फेक न्यूज का यह बढ़ता आँकड़ा अब सरकारी और आर्थिक दखल से भी आगे बढ़ गया है। ट्रंप जैसे राजनयिक लोग इस धारा का इस्तेमाल भी करते हैं और फिर इसे बाजारू भी घोषित कर देते हैं।
          फेक न्यूज के बढ़ते दायरे ने मुख्य धारा की खबरों और बौद्धिक लेखों को हाशिए पर धकेल दिया है । आज का युवा जिन खबरों से स्वाधिक प्रभावित है,वह फेक न्यूज है। आज अगर कोई आम आदमी सरकार या प्रशासन के खिलाफ गलत बयानबाजी करता है तो उस मुखर विरोध को दबाने के लिए आई टी कानून हैं, उसे फिर भी रोका जा सकता है। पर जब स्वयं सरकारें इस तरह के आरोपों से घिरेंगी तो उनके लिए ट्राई(नियामक संस्था) की भूमिका में कौन आगे आएगा। सरकारें, दल इन फेक न्यूज के माध्यम से अवाम की जन भवनाओं को उकसाने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह एक सीमित जानकारी के तहत जनता को भ्रम में रखने  की कोशिश है। सोशलमीडिया पर वायरल होने वाली ये खबरें उन्माद पैदा करती है। इस तरह से खबरों का अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करना , किसी को राष्ट्रवादी, गैर राष्ट्रवादी घोषित करना भारत ही नहीं विश्व स्तर की राजनीति  का हथियार है। कैराना को कश्मीर बनाने की साजिश हो, मंदिर और मस्जिद जलने की अफवाह हो या अन्य देश पर आक्रमण या लड़ाई की खबरें हो अनेक खबरों की फेक न्यूज ,आज फेसबुक या न्यूज अपडेट्स पर तैरती मिलती रहती है। अभी हाल ही में आरक्षण खत्म करने की बातें भी सोशल मीडिया पर तैरती मिल रही थी, जो बेबुनियाद थीं।

जाहिर है कि ये मामले  मीडिया की स्वायत्ता के खिलाफ खतरे को इंगित करते हैं। कोई खबर छपती है, चलती है और किसी अन्य का राजनीतिक कैरियर खत्म हो जाता है,। यह डिजाइन, यह साजिशें जनता को ही रोकनी होगी। ऐसे संगठन बनाने होंगे  जो फेक न्यूज की निगरानी रख सके। हमें विवेकबोध की ज़रूरत है जो सच औऱ झूठ में अंतर कर सके। बहुत कम लोग हैं जिन्हें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य मामलों की वास्तविक समझ है पर आज कोई भी आकर विचार, तथ्यों और विश्लेषणों से परे मह़ज क्षणिक भावावेश में आकर अपनी राय ज़ाहिर कर देता है औऱ बात सच, झूठ के परीक्षण से गुजरे बिना ही वायरल हो जाती है। ऑनलाइन वर्ग को फेकन्यूज वेंडर्स के प्रति जागरूक होना होगा। इसी को ध्यान में रखते हुए बीबीसी ने स्लो न्यूज जारी करने की बात कही है तथा फेसबुक ने भी एडिटिंग का विकल्प रखने की बात कही है। बीबीसी के अनुसार 83 प्रतिशत भारतीय दर्शक इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि यह सूचना, खबर असली है या नकली। इस भ्रम से बचने के लिए ब्लूम लाइव डॉट इन, हाल्ट न्यूज डॉट इन(अहमदाबाद) तथा मीडिया विजिल जैसी अनेक वेबसाइट्स ऐसी खबरों, पोस्टस को उद्घाटित करने की कोशिश कर रही हैं जो नकली हैं, पर इनका प्रसार अभी भी बहुत कम है। सोशल मीडिया पर भ्रम के इस कारोबार को, जिसके मूल में कहीं ना कहीं तल्खी बनाए रखने की जिद और सनसनी ही शामिल है, रोकना होगा अन्यथा मीडिया जनतंत्र के उस विश्वास को खो देगा जो उसने अपनी प्रतिबद्धता और विश्वसनीयता के दम पर हासिल किया है ।

Thursday, June 15, 2017

सेना पर गलत आरोप उचित नहीं!











कश्मीर हमारा ताज़ ..कितना खूबसूरत लगता है ना यह कहना, पर वहाँ के हालात  दर्द और खौफ़ की अज़ीब दास्तां को बयां करते हैं। कभी सेना पर पथराव तो कभी पैलेटगन का विरोध जैसे अनेक वाकये हमें गाहे-बगाहे सुनने को मिलते हैं। सुना है, वहाँ की वादियाँ जोरदार धमाकों और फायरिंग से गूँजती है और ऐसे मौकों पर लोग वहाँ बत्तियाँ गुल करके एक दूसरे की घड़कन सुना करते हैं। आसरा होता है तो बस सेना का कि वह सब कुछ सहेज लेगी। सेना की नीतियाँ स्वयं सेना तय करती है और निःसंदेह वे जनहित में ही होती हैं। अगर ऐसे में कोई मामला वैपरीत्य में  प्रचारित होता हुआ नज़र भी आता है तो उसे लेकर सम्पूर्ण सेना, उसकी कार्रवाई और नीतियों पर ही प्रश्नचिन्ह  लगा देना बेमानी प्रतीत होता है कश्मीर में सेना के साथ बदतमीजी को लेकर तो कभी उनकी भूमिका को लेकर आए दिन कुछ ना कुछ सुनने को मिल जाता है।  अगर वहाँ किसी पत्थरबाज को पकड़ लिया जाता है और सीख के लिए सैनिकों के द्वारा आत्मरक्षक कदम  जनहित में उठाया जाता है, तो वह मानवाधिकार के घेरे में आ जाता है। हालांकि अन्य दृष्टि से यह भी मानवाधिकार के विपरीत है पर क्या ये स्थितियाँ औऱ इनमें सेना के द्वारा उठाए जाने वाले कदम इतने आसान हैं जितने की हमें सोशल मीडिया पर पोस्ट या टीप करते, पढ़ते हुए,लिखते, देखते या सुनते हैं, शायद नहीं।

एक वीडियो सोशल मीडिया पर फिर वायरल हो रहा है। इस वीडियों के सच या झूठ होने पर अभी कोई तय सूचना भी नहीं है, पर यह झूठ सा दिखने वाला सच आहत करता है । वीडियों में बुरका पहनी हुई एक महिला सेना पर आरोप लगाती हुई नज़र आ रही है कि सेना हमारे घरों में जबरन घुसकर  हमें परेशान करती है, तोड़-फोड़ करती है। उनका कहना है कि सेना के जवान हमारे साथ मार-पीट करते हैं, नाना प्रकार की माँग करते हैं, फिर हम इनका साथ क्यों दें। जैसा कि अमूमन होता है,वीडियों के जारी होते ही इसे बड़ी संख्या में लोगों द्वारा शेयर भी किया जा चुका है। अनेक लोगों ने वीडियों पर प्रतिक्रिया भी दी है। कई लोगों ने सेना के खिलाफ टिप्पणियाँ भी लिखी हैं, लेकिन जो बात चौंकाने वाली है वह यह कि वीडियों पर कमेंट करने वाले यूजर एक ही सम्प्रदाय विशेष के हैं। यूँ इन खबरों , वीडियों से मुत्तसिर नहीं हुआ जा सकता पर फिर भी ये घटनाएं कोमल जनमानस और सेना के विश्वास पर व्यापक प्रभाव तो छोड़ती ही हैं।
खबरों का रसायन कितना मारक होता है , यह हम सभी जानते हैं। इसलिए पत्रकारिता में भी शब्दों को बहुत तोल-मोल कर प्रयोग करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। फिर ऐसे में सोशल मीडिया पर सेना को लेकर क्षेत्र विशेष का ऐसा संवेदनशील  वीडियों या खबर आना जनमानस में एक सनसनी पैदा करता है। माना क्षेत्र विशेष में स्थितियाँ जटिल हैं पर अधिकतर ऐसी घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने वाले लोग पूर्वाग्रहों  औऱ अतिवाद से ग्रसित होते हैं। पूर्वाग्रह  औऱ अतिवाद दोनो ओर हैं, दाएँ भी हैं और बाएँ भी , तमाम विचारधाराओं में पर क्या वे राष्ट्र या मानवता से ऊपर उठकर हैं हम इन अतिवादी ध्रूवों से बचकर मध्यम मार्ग की तलाश कर हालातों का सामना जनतांत्रिक तरीकों से भी तो कर  सकते हैं।
दरअसल ऐसी खबरों और दोषारोपण से उस सेना का मनोबल टूटता है जो सब कुछ छोड़कर भले ही किसी की नज़र में अपनी आजीविका के लिए ही सही, पर अपनी जान हथेली पर लिए सरहद पर खड़ी है। सेना को प्रश्निल निगाहों से देखना, या उस पर बेवजह आरोप लगाना उसकी निष्ठा, उसकी प्रतिबद्धता को ठेस पहुँचाना है। राजनीतिक उठापठक और बहसें सदा से होती रही हैं, अनेक मामलों को पक्ष-प्रतिपक्ष अपनी सहूलियत से उठाता रहा है परन्तु किसी भी राष्ट्र की सेना को लेकर लगातार दुष्प्रचार किया जाना, गलत खबरों का खंडन नहीं किया जाना , सेना में भी रोष पैदा करता है। युद्ध, दंगों औऱ अप्रिय हालातों का पैरोकार कोई नहीं होता, सरहद पर खड़ा सैनिक भी अमन चाहता है पर जब बात देश के आत्मसम्मान की आती है तो उन्हें फैसले लेने की अनुमति होनी चाहिए। सरकार, मीडिया तंत्र या किसी भी बाहरी संस्था का हस्तक्षेप उसकी कार्यप्रणाली में सीधा-सीधा दखल पैदा करता है। यह बात हम सैम मानेक शॉ के समय में भी देख सकते हैं जब वे सेना में बगैर किसी राजनीति के दख़ल में काम करना पसंद करते थे, उसके नतीजे भी हमारे सामने हैं। इसका ज़िक्र बहराम पंताखी अपनी किताब सैम मानेक शॉ- द  मैन एंड हिज टाइम्स में भी करते हैं। सोचने की बात यह है कि अब अगर ऐसी स्थितियाँ आ जाएँ तो सेना के निर्णयों का हम कितना सम्मान कर पाएँगें। यह भी सही है कि सेना की कार्रवाई और ऐसी घटनाओं का राजनीतिक लाभ कमाने की नीति भी लोकतंत्र के लिए हानिकारक ही है। माओत्से तुंग का यह कथन ठीक है कि- हज़ारों फूलों को खिलने दो, हज़ारों विचारों को टकराने दो’, पर अगर कुतर्क हो, प्रसारित विचार द्वेषपूर्ण हों तो उन पर गहन चिंतन और तदनुरूप रोकथाम भी उतनी ही ज़रूरी है।


सूचना के बाजार के अपने खतरे हैं। यह अफीम की तरह काम करता है,धीरे पर देरतलक और प्रभावी।  यह धीरे-धीरे आपकी मानसिकता को सौंखता है, खराब कर दैता है। भावनाओं का कब किस तरह व्यक्ति के विरोध में और व्यक्ति सापेक्ष प्रयोग करना है, यह बाज़ार बखूबी जानता है। क्या ऐसे वीडियों, ऐसी खबरें, तकनीक के संसार में एक हिंसक समाज को नहीं पैदा कर रही हैं? इनमें से ही वे लोग जन्मते हैं जो ट्रोल करते हैं, फब्तियाँ कसते हैं, असहमति का विरोध करते हैं। यह सभी स्थितियाँ खतरनाक हैं, अतः इनका विरोध होना चाहिए। हरिशंकर परसाई कहते हैं, सत्य को भी प्रचार चाहिए, अन्यथा वह, मिथ्या मान लिया जाता है। अतः सेना को लेकर भी जो भ्रांतियाँ जनमानस में हैं या जिनका दुष्प्रचार किया जा रहा है, उनका खंडन आवश्यक है। क्योंकि बात सेना के आत्मसम्मान से भी जुड़ी है , फिर यह भी कहा गया है कि किसी भी देश की सेना कितनी भी ताकतवर क्यों ना हो, अगर उस देश के लोग उसके साथ नहीं हैं तो वह कमजोर पड़ जाती है। वस्तुतः जनमानस ही सेना का सपोर्ट सिस्टम है। ऐसी खबरों को लेकर जो वाद-प्रतिवाद और नकारात्मक टीपें हैं उन्हें देख-सुनकर तो फिलवक्त परवीन शाकिर की पंक्तियों में  यही कहा जा सकता है कि- 

               “मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी, 
                  वो झूठ कहेगा औऱ लाजवाब कर देगा।

Monday, June 5, 2017

सतत आवश्यकता है स्त्री मुद्दों पर बात करने की..



तिरे माथे पर यह पैराहन खूबसूरत है, पर तू इससे परचम बना लेती तो बेहतर था, शायद मज़ाज की इस शायरी का ही असर है कि हरियाणा की लड़कियों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की है। स्त्री आज भी जूझ रही है कहीं तीन तलाक का मुद्दा है , कहीं मंदिर प्रवेश को लेकर उसके अधिकारों की मांग से धर्म के तथाकथाथित सिंहगढ़ों की चूलें हिल रही हैं तो कहीं आदिवासी अस्मिता के मामले औऱ निर्भया सरीखे वाकये उसकी देह पर घात लगाए बैठे हैं । दंगे हो,  धर्म हो या राजनीति की सियासत स्त्री की अस्मिता को तार-तार करने का कोई भी मौका तथाकथित पितृसत्तात्मक मानसिकता द्वारा छोड़ा नहीं जाता। मुद्दों पर नज़र डाले तो महिला आरक्षण विधेयक जाने कब से लंबित पड़ा है, स्त्री का गैर सांस्थानिक श्रम किसी भी आंकड़ें से बाहर की विषयवस्तु है, साथ ही संस्थागत लैंगिक विभेद से भी वह हर क्षण जूझती रहती है।
 धरा के भूगोल के हर चप्पे पर स्त्री के लिए स्थितियाँ कमोबेश एक जैसी ही है। इसीलिए कहा गया है कि स्त्री का ना कोई  देश है , ना जाति और धर्म। स्त्री अधिकारों को लेकर बहुत सी लड़ाईयाँ लड़ी गई  हैं और अभी भी लड़ी जानी बाकी है पर इस बीच जब लड़कपन की  दहलीज़ पर कदम रखती लड़कियाँ अपने हक औऱ हकूक की बात करती है तो तसल्ली होती है। बात हरियाणा की लाडलियों की है जो विषम  लिंगानुपात के लिए कुख्यात है। प्रधानमंत्री मोदी एक ओर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ आंदोलन की शुरूआत पानीपत से कर बेटियों की हौंसलाअफजाई करते हैं वहीं दूसरी ओर रेवाड़ी जैसी घटनाएँ यथास्थिति बयां करती है कि हालात अब भी क्या और कैसे हैं! हरियाणा की लड़कियों का एक ओर बता मेरा याद सुदामा रे वीडियो देखकर हर कोई मंत्रमुग्ध होता है वही इसी अंचल की बालाओं का शिक्षा के लिए जुनुन सभी के लिए आदर्श बन जाता है। यह उनका जुझारूपन ही है कि वे शिक्षा के लिए अनशन पर बैठकर सरकार की ओर अपना ध्यान खींच रही है, उन्हें अपने नजरिए से मामलों को देखने की दीठ प्रदान कर रही हैं।
मामला जैसा दिख रहा है, उसके अनुसार हरियाणा के रेवाड़ी के गोठड़ा टप्पा डहीना गाँव की ये लड़कियाँ अपने विद्यालय को क्रमोन्नत करने की मांग की गुहार राज्य सरकार के समक्ष रख रही हैं। गौरतलब है कि रेवाड़ी के गोठड़ा टप्पा डहेना गांव की 83 छात्राएँ स्कूल छोड़कर 10 मई से धरने पर बैठी थीं। इनमें से 13 लड़कियाँ भूख हड़ताल पर थीं। इन छात्राओं की मांग थी कि उनके गाँव के सरकारी स्कूल को 10 वीं कक्षा से बढ़ाकर 12 वीं तक किया जाए। आंदोलन पूरे देश में सुर्खियाँ और सहानुभूति बटोर चुका था। यह उनके जुनून का ही नतीजा है कि छात्राओं और उनके अभिभावकों की   माँग स्वीकृत हो गई है और यूँ अनशन भी समाप्त, पर क्या ऐसे अनशन उचित है, या सरकारें  क्या अनशन और धरनों की ही भाषा समझती है,  यह बात बार-बार जेहन में आती है।
दरअसल सत्ता कई मुद्दों से एक साथ जूझ रही होती है। ऐसे में आम जन की अनेक समस्याओं की ओर उसका ध्यान नहीं जा पाता। जनसाधारण अपनी मांग को सरकार के सन्मुख रखने के लिए ऐसे कदम उठाता है जिससे उसकी बात उन कानों तक पहुँचे, जो अब तक उदासीन रहे हैं। स्त्री मुद्दों को लेकर अतिरिक्त संवेदनशीलता बरती जानी चाहिए। केवल अभियान चलाने या कि सहायता कोष में राशि देने मात्र से स्त्री हितों की बात लागू नहीं हो जाती। इस आधी आबादी को जीने के मूलभत अधिकारों की दरकार है जिन पर सदियों से पितृसत्ता कुंडली मार कर बैठी है। स्त्री बैखोफ होकर जीना चाहती है, संभवतः यही चाहना ही इस आंदोलन के केन्द्र में भी रही है।
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार गाँव में 12वीं  तक  स्कूल नहीं होने के कारण अनेक लड़कियां आगे की पढ़ाई छोड़ देती हैं. आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें गाँव से 3 किमी. दूर दूसरे गाँव जाना पड़ता है। यातायात के संसाधनों के अभाव के कारण ये दूरी और अधिक लगने लगती है। छेड़छाड़ के प्रसंगों का सतत घटना एक भय भी पैदा करता है।  ऐसे में छात्राओं द्वारा ऐसी मांग उठाना काबिलेतारीफ और निहायत जरूरी है।
हालांकि माध्यमिक से उच्च माध्यमिक तक अपग्रेड करने के लिए छात्रों के नामांकन संबंधी कुछ नियम होते हैं जिनके अभाव में यह मांग पूरी नहीं की जा सकती। परन्तु सरकार द्वारा झुककर, छात्र हित में में स्कूल क्रमोन्नत किए जाने का यह फैसला वाकई सराहनीय है। गौरतलब है कि 2016 में रेवाड़ी जिले में ही स्कूल जाते समय एक छात्रा के साथ बलात्कार होने के बाद, दो गाँवों की सभी लड़कियों ने स्कूल छोड़ दिया था। पूर्व में भी सरकारों और प्रशासन द्वारा स्कूल क्रमोन्नत की मांग की गई पर मामला ढाक के तीन पात ही रहा। यही कारण है कि इस बार बच्चियाँ आर-पार के मूड में थीं।
एक ओर  जहाँ सरकारी विद्यालयों में गिरते नामांकन चिंता का विषय है वहीं दूसरी ओर शिक्षा के अधिकार के लिए ऐसे कदमों का आगे आना उत्साह पैदा करता है। उत्साहवर्धक है कि राज्य में बीते वर्ष से लिंगानुपात की दर  834 से 906 में इजाफा हुआ है। हरियाणा  में महिला साक्षरता दर भी 75.4% दर्ज की गई है। लड़कियों के द्वारा अपनी बात को दमदार और गाँधीवादी तरीके से सामने रखना ये जताता है कि समानीकरण की दिशा में भी वहाँ कुछ प्रयास हो रहे हैं। समान सुविधा और अवसर उसकी वास्तविक मेधा को परिष्कृत करने में अहम् भूमिक निभा सकते हैं।
यह सही है कि समाज, संसद, आर्थिक परिवेश में नारी की सक्रिय उपस्थिति से ही आर्थिक विषमता, साम्प्रदायिक असहिष्णुता औऱ प्राकृतिक शोषण से गहरे रंगे चित्रों को कुछ हल्का किया जा सकता है। बात ऋचाओं की करें तो वहाँ भी उल्लेख्य है – श्री वाक्च नरीणां, स्मृतिमेधा, धृति, क्षमा अर्थात्  श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धैर्य और क्षमा  स्त्री की प्रकृति प्रदत्त शक्तियाँ , क्षमताएँ हैं। शिक्षा भी उसके उन्हीं अधिकारों और क्षमताओँ में शुमार है, जिससे वंचित करना, दरअसल उसे उसके मानवीय अधिकारों से वंचित करना है। निःसंदेह छात्राओँ की यह पहल स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में एक जरूरी हस्तक्षेप है।


Friday, June 2, 2017

असफलता के तौल में ढुलकती ईवीएम की विश्वसनीयता


राजनीति भी अजीब शै है,कब किस तरह किस मुद्दे को राई का पहाड़ बना दिया जाए और पहाड़ को राई यह बात राजनीति के जानकार और खिलाड़ी बखूबी जानते हैं। दोषा –प्रत्यारोप तक तो ठीक है परन्तु जब संवैधानिक व्यवस्था को ही चुनौती दी जाती है तो बात चिंता पैदा कर देती है। हाल ही में सम्पन्न पाँच विधानसभा चुनावों में अनेक पार्टियों द्वारा ईलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन को लेकर खुलकर बयानबाजी और बहस हुई थी। जो दल हार का मुँह देक रहा था उसी को चुनाव आयोग से शिकायत हो रही थी। इसी के मद्देनजर आयोग ने 12 मई को ईवीएम से संबंधी गड़बड़ी की शिकायतों को लेकर आयोजित सर्वदलीय बैठक के बाद मान्यता प्राप्त और सभी राजनीतक दलों को खुली चुनौती में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया ।  3 जून को आयोजित होने वाली इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए 26 मई तक राजनीतिक दलों को आवेदन करना था लेकिन निर्धारित समय सीमा तक केवल दो दलों ने आवेदन किया । अनेक दलों द्वारा तरह-तरह के आरोप लगाए जाने के बावजूद सिर्फ दो दलों एन.सी.पी. औऱ माकपा ने आवेदन किया और वे ही चुनौती के लिए आगे भी आए। पर उनका यह आना चुनौती के लिए ना होकर प्रक्रियागत जानकारी लेना ही अधिक साबित हुआ। मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी के अनुसार दोनों दलों के प्रतिनिधियों ने ईवीएम हैक करने के बज़ाय मशीन के तकनीकी पहलुओं की भ्रांतियों को दूर करने का आग्रह किया । उनकी माँग के मुताबिक चुनाव आयोग ने उनकी माँग को स्वीकारते हुए मशीन संबंधी तकनीकी पहलूओं पर सविस्तार जानकारी दी।
पहले ईवीएम पर आरोप लगाने और फिर उससे पल्ला झाड़ लेने का मामला बचकाना लगता है फिर भी चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के सक्रिय सहयोग का स्वागत करते हुए कहा कि इससे देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना में मजबूती प्राप्त होगी। इससे पूर्व आप पार्टी ने भी ईवीएम मशीन की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाए थे परन्तु उसने भी आयोग की जाँच प्रणाली से खुद को अलग कर अलग जाँच करने का निर्णय लिया। पंजाब चुनावों में इस मुद्दें में आप की विरोधाभासी बयानबाजी समझ से परे रही है।
ईवीएम का प्रयोग पहली बार 1982 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ। तब तक भारत में आरपी एक्ट,1951 के तहत मतपत्र और मतपेटी का ही प्रयोग होता आ रहा था,चुनाव आयोग ने तब भारत सरकार से कानून में संशोधन का आग्रह किया।  चुनाव आयोग ने अपनी आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए ईवीएम को चुनावी क्षेत्रों में उतारा। मुद्दा हाइकोर्ट में भी गया और पिल्लै की जीत के बाद शांत भी हुआ। परन्तु ईवीएम पर यह बहस आज भी जारी है। इस के बाद 1989-90 में विनिर्मित ईवीएम का प्रयोगात्मक आधार पर पहली बार नवम्बर 1998 में आयोजित 16 विधानसभाओं के साधारण निर्वाचनों में इस्तेमाल किया गया। ये निर्वाचन क्षेत्र राजस्थान, मध्यप्रदेश औऱ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, नई दिल्ली से संबंधित थे। साथ ही यह जानना भी ज़रूरी है कि  जिस ईवीएम के लिए इतना बवाल मच रखा है उसके बनाने में कई बैठको,प्रोटोटाइपों का परीक्षण औऱ व्यापक फील्ड ट्रायल भी किया गया है। ईवीएम दो लोकउपक्रमों की सहायता से भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड,बेंगलुरू एवं इलेक्ट्रोनिक कॉर्पोरेशन ऑफ,इण्डिया,हैदराबाद के सहयोग से निर्वाचन आयोग द्वारा तैयार की जाती है। इसकी तैयारी,निर्माण एवं प्रयोग में गहन परीक्षणों से गुजरने के बाद ही इसे प्रयोग के लिए निर्वाचन क्षेत्रों में उतारा गया है। ज़ाहिर है इसमें निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता को शामिल करके ही लोकतंत्र के विश्वास के निवेश के तहत लोकहित में तथा पर्यावरण हित में तकनीक का दामन साधा गया होगा। फिर  भी अगर संशय रहता है तो वह चुनावों के बाद ही क्यों सामने आता है, समझ से परे है।
ऐसा नहीं है कि यह विरोध पहली मर्तबा ही दर्ज़ किया गया है । विरोधी पार्टियों द्वारा पूर्व में भी यह विरोध दर्ज़ करवाया गया है।  भारतीय जनता पार्टी जो इन दिनों ईवीएम के इस्तेमाल का समर्थन कर रही है,  वह भी पूर्व में इसका विरोध करने वाली राजनीतिक पार्टी रही है। वर्ष 2009 में जब भारतीय जनता पार्टी को चुनावी हार का सामना करना पड़ा, तब पार्टी के शीर्ष से वंचित रहे और वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने सबसे पहले ईवीएम की कार्यप्रणाली और उसकी संदिग्धता पर सवाल उठाए थे। इसके बाद पार्टी ने भारतीय और विदेशी विशेषज्ञों, कई गैर सरकारी संगठनों और अपने विचारकों और विशेषज्ञों की मदद से ईवीएम मशीन के साथ होने वाली छेड़छाड़ और धोखाधड़ी को लेकर पूरे देश में अभियान भी चलाया।
इस अभियान के तहत ही 2010 में भारतीय जनता पार्टी के  प्रवक्ता और चुनावी मामलों के विशेषज्ञ जीवीएल नरसिम्हा राव ने एक किताब लिखी- 'डेमोक्रेसी एट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट ऑन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन?' इस किताब की प्रस्तावना लाल कृष्ण आडवाणी ने लिखी और इसमें आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्राबाबू नायडू का संदेश भी प्रकाशित है हालांकि इस पुस्तक में वोटिंग सिस्टम के एक्सपर्ट स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डेविड डिल ने भी बताया है कि ईवीएम का इस्तेमाल पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है।

भाजपा के प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने किताब की शुरुआत में लिखा है- "मशीनों के साथ छेड़छाड़ हो सकती है, भारत में इस्तेमाल होने वाली इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन इसका अपवाद नहीं है. ऐसे कई उदाहरण हैं जब एक उम्मीदवार को दिया वोट दूसरे उम्मीदवार को मिल गया है या फिर उम्मीदवारों को वो मत भी मिले हैं जो कभी डाले ही नहीं गए।" यह उद्धरण किसी भी मशीन के लिए सही है क्योंकि मशीन मानव निर्मित उपकरण ही तो है और ऐसा असंभव है कि उससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।पर बात भारतीय निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाने को लेकर भी जुड़ी है। निर्वाचन आयोग चुनाव को लेकर अनेक सावधानियाँ बरतता है, कड़ी निगरानी में मतदान प्रक्रिया को अंजाम देता है। सीलपैक ईवीएम उपकरण मतदान स्थलों तक पहुँचाने से लेकर मतगणना तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया भी विशेष निगरानी में होती है जिसमें अब वीवीपैट भी शामिल है। भारत में यह पहली बार नहीं है जब इस तरह का हल्ला मचा है, भारत सहित अन्य देशों में भी इस तरह का विरोध होता रहा है परन्तु अनेक विवादों के साथ ही विश्व के अनेक देशों में जहाँ इसका चलन है वहाँ पेपल बैकअप के प्रावधान के साथ स्वीकार्य भी है,जिसे हमारे यहाँ भी अपनाया गया है। बात इतनी सी है कि यह हंगामा हार के बाद ही क्यों बरपता है क्या ऐसा करना  देश की संवैधानिक व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने का अलोकतांत्रिक रवैया नहीं है? इस रवैये से तो यही तय होता है कि- आईना देख अपना सा मुँह लेके रह गए....