Saturday, May 26, 2018

कै़द और रिहाइयाँ!

रिहाइयाँ आसान कब हुई हैं....ज़िन्दगी क़तरा -क़तरा बह जाती है और ज़मी रह जाती हैं कुछ बिनबुलायी स्मृतियाँ... और एक अंतहीन इंतज़ार ।

ठीक वहीं ठहरे होते हैं कुछ चेहरे जिनसे कोई नाता न होकर भी कुछ बेहद आत्मीयता का रिश्ता बन जाता है।ठीक वैसे ही जैसे कुछ अजनबियों से हम  बहुत निश्छल मुस्कराहटें बेबात साझा कर लिया करते हैं।

हम कहाँ , किस तरह और किस क़ैद में स्वयं घिर जाते हैं पता ही नहीं चलता। यही कारण रहा होगा कि इन्द्रियों का संयत प्रयोग करने की सलाह तथागतों द्वारा दी गई होंगी।

ऐसा ही एक दु:ख घर ले आई हूँ। सात बरस के लगभग की उम्र , सायकिल पर दो दूध की डोलकी थामे वह खुश बच्चा हवा में अपनी देहगंध घोलता हुआ मुझे लगभग छूकर आगे बढ़ा है। कुछ दूर आगे वह एक घर पर रूक कर भीतर दूध देने गया है। मेरे साथ उसकी सायकिल कुछ देर ठहर गई है। हवा का एक तेज झोंका उसकी सायकिल को गिराने और दूध से अरमानों को बहाने की कोशिश करता है। दौड़ कर की गई मेरी कोशिशों के बावजूद मैं कोई  राहत नहीं जुटा पाती हूँ। वह भीतर से लौटता है और कुछ  हताश शब्द बुदबुदाता है ।
उनमें से यही सुनाई देते हैं कि यह कैसे हो गया ..मैं इतना ही कह पाती हूँ कि हवा तेज़ थी ..यह नहीं कह पाती कि मैंने कोशिश की थी। उसे शायद पिता या कि माँ की डाँट का भय रहा होगा।

वो लौट गया है पर एक भय और उदासी मेरे साथ रह गई है।

जीवन में ऐसे ही तो हम कितनी घटनाओं , उदासी या कि खुश लम्हों के साक्षी बन जाते हैं, जिनसे मुक्त होना ताउम्र संभव नहीं होता।

#क़ैदऔरिहाइयाँ

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