Friday, March 8, 2019

औरत हूँ मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूँ
इक सच के तहफुज्ज के लिए लड़ी हूँ।

फ़रहत ज़ाहिद जब यह ग़ज़ल लिखते हैं तो मानो स्त्री-संघर्ष के हज़ार वर्षों के संघर्ष को आवाज़ दे देते हैं। स्त्री को शक्त करने में जो अनेक कारण हमने देखें हैं उनमें वर्चस्व की राजनीति;जिसमें सम्पत्ति और सत्ता जैसे पक्ष प्रमुख रहे हैं, ही सामने आए हैं। हम देखते हैं कि सत्ता का यह संघर्ष इतना प्रचंड रहा है कि इनके चलते स्त्री को डायन तक करार दे दिया गया है;परन्तु इन बंदिशों के इतर एक तसवीर और भी है जिसे देखें तो स्त्रीवाद की लड़ाई,अपने हक़ूक के लिए किए गए संघर्ष में विजय पाती नज़र आती है और वह है सामाजिक स्तर पर आर्थिक बराबरी । स्त्री आज न्यायिक, शिक्षा, प्रशासनिक, सैन्य और राजनीति सभी क्षेत्रों को अपनी कर्मस्थली बना रही है , हालांकि शक्ति के उच्च स्तरों यथा विश्वविद्यालय के कुलपति स्तर और राजनीति के सत्तासीन पदों पर अब भी महिलाओं की उपस्थिति कम ही है ;परन्तु यह परिदृश्य भी ज़ल्द बदलेगा ऐसी आशान्विति है।   

स्त्री और समाज को उसकी समता की लड़ाई में जिस पक्ष पर बात करनी है वह है उस पर लैंगिक-प्रशिक्षण की थोपी गई सीख और संघर्ष, जिसमें उसके उठने-बैठने-पहनने-खाने सरीखे तमाम क्रियाकलाप पुरुषसत्ता की हदबंदियों में हैं। इन हदबंदियों को तोड़ने में शिक्षा और सकारात्मक सोच एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकती है। बहुत कुछ हो रहा है और बहुत कुछ होना बाकि है। बहुतेरे संविधान संशोधन हुए हैं, क़ानून और नियम बनाए गए हैं, अध्यादेश लाए गए हैं, पर सामाजिक-सोच और नज़रिया क्या हम वाकई बदल पाए हैं, यह सोचना होगा। सोचना होगा कि क्या स्त्री के प्रति सम्मान भाव समाज में पैदा हो पाया है। दुखद है पर कहना होगा कि अभी भी कुत्सित और संकीर्ण विचारधाराएँ उसे उसके मानवीय अधिकारों से वंचित कर रही है। इस सोच को बदलने के लिए समझदार और मानवीय सोच से लबरेज़ वैचारिक और समरसतावादीबौद्धिकी की आवश्यकता है । बात वैश्विक परिप्रेक्ष्य में की जाए या कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री की स्थिति कमोबेश एक-सी ही है। अतः स्त्री को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए, समता और समानता के लिए प्रयास तो सतत करने होंगे साथ ही स्वयं स्त्री को भी यह जानना होगा कि स्त्रीवाद की लड़ाई में वह कहीं छद्म स्त्रीवाद को तो नहीं अपना रही है;कहीं वह अपने बरअक्स स्वयं ही एक और विपक्ष तो नहीं गढ़ रही है।
स्त्री के नैसर्गिक गुण उसकी कमतरी नहीं वरन् सामर्थ्य है ।वह त्यागमयी, दयामयी, क्षेममयी है तो वह धीरा भी है। य अतिरिक्त गुण जो कि रिक्तता क़तई नहीं है नवपीढ़ी को याद दिलाते रहने होंगे अन्यथा नए जमाने की स्त्री  स्वातंत्र्य का परचम उठाए एक ऐसे उच्छृंखल वर्ग का संकुल बन जाएगी जो पितृसत्ता के क्रूर पक्ष का तो अक्स होगी ही साथ ही देह की जकड़न में बँधी गैर-ज़िम्मेदार नस्ल का भी प्रतिनिधित्व करेगी।

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