Monday, May 9, 2022

अबोध आदिवासी मन और हथियारबंद संगठनों के बीच एक रक्तरंजित शासकीय रेख

" दक्षिण बस्तर में दूर किसी गाँव से आती यह आवाज़ गोंडी गीत संगीत की पहचान थी। ढोल नगाड़ों के बजने की आवाज़ किसी आयोजन का संकेत। बस्तर के गाँवों में ऐसे आयोजन अक्सर सूरज ढलने के बाद शुरू होते और देर रात तक चलते जिसमें गोंड आदिवासी सब कुछ भूलकर गीत संगीत में खो जाते, लेकिन जून की तपती धूप में सुबह सवेरे होने वाला यह आयोजन कुछ अलग था। इसीलिए आदिवासियों की मौजमस्ती का वह रंग आज कुछ फीका लग रहा था। न वह उत्साह था, न वह लापरवाही और न वह मस्ती जो गोंडी गीत संगीत के ऐसे कार्यक्रमों में घुली होती है।" (उपन्यास अंश)


Joshi, Hridayesh. Laal Lakeer (Hindi Edition) (p. 7). HarperHindi. Kindle Edition. 


अबोध आदिवासी मन और हथियारबंद संगठनों के बीच एक रक्तरंजित शासकीय  रेख

(संदर्भ लाल लकीर – हृदयेश जोशी)

 

डॉ.विमलेश शर्मा

 लेख अंश

हृदयेश जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और एक दशक से भी अधिक के समय में माओवाद प्रभावित बस्तर से लगातार रिपोर्टिंग करते रहे हैं। बस्तर के वॉर ज़ोन से उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिये उन्हें प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी मिल चुका है। लाल लकीर उनका पहला उपन्यास है।लाल लकीर एक समस्याप्रधान उपन्यास है जो आदिवासी संस्कृति के सहज सौन्दर्य, उसके संघर्ष, राजनीतिक संघर्ष से उपजे घाव, नक्सली हिंसा, हिंसा-प्रतिहिंसा की जद्दोजहद, और जबरन भूमि अधिग्रहण को एक साथ उद्घाटित करने का प्रयास करता है। भारत में जब आर्थिक परियोजनाओं का प्रारंभ आधुनिकीकरण की आड़ में प्रारम्भ हुआ तो इन परियोजनाओं के लिए ज़बरन ज़मीन हथियाने के कुचक्र भी प्रारम्भ हुए और उनके विरोध में कई हथियारबंद संगठन प्रतिक्रियास्वरूप लामबंद हुए। 

अगर भारत के राजनीतिक परिदृश्य की बात करें तो 2009 में केंद्र सरकार ने नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ प्रोजेक्ट   शुरू किया था। पश्चिम बंगालउड़ीसाछत्तीसगढ़ और बिहार समेत अन्य राज्यों में नक्सलियों के खिलाफ़ ये ऑपरेशन चलाए गए थे। ऑपरेशन ग्रीन हंट को अब ऑपरेशन प्रहार’ के नाम से जाना जाता है। तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने इसके साथ ही यह घोषणा की थी कि पांच सालों के भीतर नक्सलवाद को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाएगा। क्योंकि नक्सलवाद मानव संसाधनों के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका था।  वस्तुतः  नक्सलवाद विरोधी इस मुहिम के केंद्र में बस्तर था। इस ऑपरेशन के तहत तत्कालीन गृहमंत्री पी.  चिदंबरम का कहना था कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास के तहत  प्रत्येक जिले को पच्चीस करोड़ रुपया दिया जाएगा , इन जिलों में दंतेवाड़ा भी शामिल था ।  इसी समय गृहमंत्री ने पुलिस और सुरक्षाबलों को इस क्षेत्र में और मजबूत करने के लिए कई सौ करोड़ दे दिए ।जिसके तहत पांच हजार से ज्यादा सुरक्षाबल जवान छत्तीसगढ़ में तैनात किए गए। लेकिन सुरक्षाबलों की कार्रवाई से नक्सलवाद कम होना तो दूर उसका दायरा अन्य जिलों और राज्यों तक फैल गया । अख़बारों में यह ख़बरें  जो कि हक़ीकत थीं, प्रकाशित होने लगीं कि,  “ देश भर में चलाए जा रहे ऑपरेशन ग्रीन हंट के तहत पुलिस जबरन ग्रामीणों को तंग कर रही हैं। पुलिस उन्हें माओवादी बनाने में जुटी है। इससे ग्रामीण आदिवासियों का गुस्सा सरकार व पुलिस के प्रति बढ़ रहा है।” इन सबके चलते नक्सली हिंसा में अचानक तेजी आ गई और बस्तर ऐसे क्षेत्र में तब्दील हो गया जहाँ सिर्फ सुरक्षाबल ही निर्दोष’ रह गए और बाकी पूरी आबादी संदिग्ध हो गई। बस्तर का वो आदिवासी जो अपने संसाधन जल , जंगल , ज़मीन छीने जाने की प्रक्रिया में पहले ही हाशिए पर थाजो  अपनी आजीविका पर आए इस ख़तरे के बावज़ूद नक्सलवादियों के साथ होकर हिंसा के साथ होना नहीं चाहता थावो इस स्थिति का सबसे बड़ा शिकार बना । उपन्यास इन घटनाक्रमों और संघर्षों की पृष्ठभूमि की बात करता है।

 

 अनवरत  संघर्ष के चलते ‘बस्तर’ जैसे प्राकृतिक ठिये सुरक्षा बलों, नक्सलवादियों-माओवादियों के बीच एक ऐसे युद्ध क्षेत्र में बदल गए जिसके बीच एक लकीर है, जो निरंतर वहाँ  के सुकून को रक्तरंजित कर  लील रही है, यह लकीर ही लाल लकीर है। इस लाल लकीर के दोनों ओर के पक्ष एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं। और उपन्यास में बस्तर के माध्यम से इस लाल लकीर के दंशों को याथातथ्य चित्रण प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास में चित्रित बस्तर की बात करें तो वह  सुरक्षा बलों और नक्सलवादियों के बीच एक ऐसे युद्ध क्षेत्र में तब्दील हो चुका है जिसके बीच एक लकीर, एक विभाजन  रेखा खिंची है, जिसके दोनों ओर अलग-अलग जीवन है। युद्ध और हिंसा से जोड़ते हुए यदि हम इसे लाल लकीर का नाम दें तो इसके आरपार के पक्ष एक दूसरे के खून के प्यासे हैं। पर उन मासूम आदिवासियों का क्या जो किसी पक्ष से ताल्लुक नहीं रखते, जो अबोध हैंये लोग लाल लकीर के दोनों तरफ शिकार बन जाने के लिए अभिशप्त हैं और आज इन्हीं में से सैकड़ो आदिवासी जेलों में निरपराध बंद हैं।  पिछले एक दशक से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रिपोर्टिंग कर रहे हृदयेश जोशी का उपन्यास लाल लकीर’ इसी त्रासदी के महीन सूत्रों को पकड़नेसमझने और दिखाने की एक कोशिश है।

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