मराठा योद्धा बाजीराव औऱ दीवानी मस्तानी के किरदार को जिस भव्यता औऱ
सहजता के मिश्रण के साथ संजय लीला भंसाली ने उतारा है शायद ही कोई औऱ उतार पाता।
मराठी उपन्यास राव पर आधारित यह फिळ्म इतिहास में कल्पना को कुछ यूँ परोसती है
जैसे कि दिसम्बर के महीने की ठंड में
घुली धूप । पेशवा के सामने गुहार से शुरू हुआ बाजीराव मस्तानी का प्रथम
साक्षात्कार अंत तक उसी उष्णता के साथ फिल्म में बना रहता है। प्रेम
इस फिल्म की आत्मा है औऱ यह अंत तक हर मन को बाँधे रखता है। बाजीराव वाकई एक
बहादुर योद्धा है, एक पति हैं, एक समर्पित प्रेमी है औऱ एक जिम्मेदार पिता भी । इन सबके बावजूद
यहाँ जो रूप सर्वथा मुखर है वह है एक प्रेमी का।
एक ऐसा पेशवा जो योद्धा है परन्तु बाहर से सख्त होकर भी ओस की बूँदों को
थामना जानता है। हवाओं के रूख को पहचानता है और प्रेम को धर्म , समाज औऱ तमाम
मान्यताओं से आगे जाकर देखता है। इतिहास में
हिन्दु पद पादशाही की स्थापना करने वाला यह योद्धा पूरे प्राण प्रण से अपना
प्रेम निभाता है , यही बात मन को बहुत अधिक छू जाती है। हर स्त्री को सम्मान देकर
वो उस स्त्री के दर्द को भी कही कम करना चाहता है जो सामंतवादी सभ्यता में स्त्री
सदियों से भोगती आयी है। यहाँ नायक ने अपनी अदाकारी से इस किरदार को बखूबी निभाया है। चाहे योद्धा हो या फिर हताश राव दोनों ही जगह रणवीर सिंह कुछ अधिक परिपक्व नज़र आते हैं। बात करते है
मस्तानी कि तो वहाँ कभी मरवण याद आती है , कभी हीर तो कभी सोहनी । मन लालायित होता
है छत्रसाल औऱ रूहानी बेगम की उस बेटी के बारे में जानने का, इतिहास को खंगालने का
जो प्रेम के चलते किसी एक रस्म का सहारा लेकर पूरी ज़िंदगी किसी और के नाम करने का
ज़ज्बा रखती हो। वाकई यह फिल्म इतिहास के कई अनछूए पन्नों को फिर पढ़ने पर बाध्य
करती है। प्रेम की अतिरंजना भले काल्पनिक हो परन्तु प्रेम का यह उदात्त स्वरूप और
यह कहन कि बाजीराव ने मस्तानी से मोहब्बत की है,अय्याशी नहीं उस योद्धा को पूरे
नम्बर दे देता है जो शायद वह 41 युद्ध जीतकर भी ना प्राप्त कर पाया हो। तुझे याद कर लिया आयत की तरह , अब तेरा ज़िक्र
होगा इबादत की तरह .. इन्हीं पंक्तियों की तरह मस्तानी को पूरे समय हिज्र के रंग
में डूबे हुए दिखाया है।
दरअसल यह जो पात्रों के सीधे मन में उतर जाने का रास्ता है वह उनके
पीछे सधे हुए अभिनय का सुझाया हुआ है। कहानी
के तीन प्रमुख किरदारों में रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा
है औऱ तीनों ने ही अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। दीपिका कुछ औऱ मंझकर
दमदार तरीके से सामने आयी है। यहाँ यह कहना बेहद जंरूरी होगा कि मस्तानी के किरदार
के लिए अगर कोई सर्वथा उपयुक्त था तो वह थी मस्तानी दीपिका । गज़ब के आत्मविश्वास
से लबरेज़ औऱ प्रेम में आकंठ डूबी मस्तानी के किरदार को जिस सहजता के साथ दीपिका
ने निभाया है वह काबिलेतारीफ है। दीपिका की उपस्थिति आश्वस्त करती है कि हिन्दी
सिनेमा का भविष्य अभी उज्ज्वल है। बाजीराव की पत्नी की भूमिका में प्रियंका , चंचल
, शोख , अल्हड़ नज़र आती है । पेशविन जो सदा उजालों के बीच रहती है परन्तु अपने गुरूर के टूटने पर उन्हीं उजालों को मिटा देना चाहती है और चिर इंतजार को ओढ़े हुए अंततः उसी पर विराम भी स्वंय लगा देती है।
फ़िल्म में आँखे पूरे समय दीपिका पर टिकी रहती है जो तमाम रस्मों, रवायतों के परे दीवानी होकर सिर्फ़ प्रेम करना जानती है। रणवीर हर फिल्म के साथ एक पायदान ऊपर चढ़ते हुए नज़र आते हैं। बाजीराव जो युद्ध क्षेत्र में अजेय है परन्तु प्रेम औऱ परिवार के आगे हार गया है उसे निभाने में वह एक हद तक सफल साबित हुए हैं।
फ़िल्म में आँखे पूरे समय दीपिका पर टिकी रहती है जो तमाम रस्मों, रवायतों के परे दीवानी होकर सिर्फ़ प्रेम करना जानती है। रणवीर हर फिल्म के साथ एक पायदान ऊपर चढ़ते हुए नज़र आते हैं। बाजीराव जो युद्ध क्षेत्र में अजेय है परन्तु प्रेम औऱ परिवार के आगे हार गया है उसे निभाने में वह एक हद तक सफल साबित हुए हैं।
फ़िल्म के लिए बधाई उस
निर्देशक को जो मस्तानी के ही हाथों
मस्तानी की तकदीर लिखवाता है , जो यह बताता है कि प्रेम में देह नहीं आत्मा का
मिलन होता है वहाँ रिश्तों के बंधन औऱ मजहब की जंजीरे नहीं होती बल्कि प्रेम दरिया
बन दो दिलों के बीच बहता रहता है।फिल्म अनेक सवाल जेहन में पीछे छोड़ती चलती है कि स्त्री की पहल जहाँ एक ओर मस्तानी को संवेदनात्मक स्तर पर शीर्ष पर पहुँचा देती है वहीं काशी के बारे में मन सोचता रह जाता है। यह कदम अगर काशी ने उठाया तो पेशवा की पेशवाई किस तरह से होती ये बातें समय के गह्वर में है और समाज की प्रतिक्रिया तो हम आप जानते ही हैं.
पूरी फिल्म में जब दर्शक बाहर निकलता है तो साथ रह जाता है एक तुतलाया ख़ुदा हाफ़िज़ , उन सितारों की टूटन जो अपनी तमन्नाओं की आरज़ू में खुद बखुद टूट जाते हैं , कुछ पत्तों की सरसराहट, संजीदा संगीत औऱ वक्त बेवक्त की बारिश। फिल्म वाकई उन मनःस्थतियों पर सटीक तंज कसती है जो मजहब की आड़ में प्रेम को गेरूए की बज़ाय हरा और केसरिया रंगने में विश्वास करते हैं।
पूरी फिल्म में जब दर्शक बाहर निकलता है तो साथ रह जाता है एक तुतलाया ख़ुदा हाफ़िज़ , उन सितारों की टूटन जो अपनी तमन्नाओं की आरज़ू में खुद बखुद टूट जाते हैं , कुछ पत्तों की सरसराहट, संजीदा संगीत औऱ वक्त बेवक्त की बारिश। फिल्म वाकई उन मनःस्थतियों पर सटीक तंज कसती है जो मजहब की आड़ में प्रेम को गेरूए की बज़ाय हरा और केसरिया रंगने में विश्वास करते हैं।
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