भूमण्डलीकरण
के इस दौर में मीडिया आम आदमी तक पहुँचने तक का महत्वपूर्ण माध्यम है। अक्सर कहा
जाता है कि मीडिया समाज
का आईना है और वह जो देखता है वही गढ़ता भी है। कई बार उसकी अवधारणाओं पर सामाजिक और अनेक मानकों
से प्रेरित अवधारणाएँ हावी हो जाती है। इन
अवधारणाओं के पीछे एक मानसिक तंत्र काम करता है। दरअसल मीडिया के तंत्र
में वह ताकत है कि वह यथार्थ को झूठ का जामा पहना सकता है और झूठ को सच बनाकर प्रस्तुत कर सकता है। कई बार
मीडिया के पैरोकार इसे मीडिया के अस्तित्व के लिए
इन्हें जरूरी मानते हैं। परन्तु क्या यह जरूरी है कि व्यावसायीकरण के
खतरनाक खेल में किसी व्यक्तित्व को ही एक वस्तु बना दिया जाए। अगर आधी दुनिया के संदर्भ में बात
की जाए तो मीडिया ने स्त्री को सर्व गुण सम्पन्न और अतिमानवीय चरित्र के रूप में उकेरा
है। आखिर क्यों स्त्री को तमाम अपेक्षाओँ युक्त इन सौन्दर्यवादी और देहवादी दायरों में बाँधने का प्रयास किया
जा रहा है। यहाँ चिट्टियाँ कलाईयों को ही तरज़ीह क्यों मिलती है और आखिर क्यों लिपे पुते चेहरे ही
सौन्दर्य के मानक निर्धारित किए गए हैं। सामाजिक
दायरों की बात की जाए तो स्त्री को सदा एक षोडसी के रूप में ही देखा गया है परन्तु
क्या यह जरूरी है कि स्त्री सदा रूपवान ही हो।
आखिर क्यों उसका वैचारिक पक्ष मीडिया में हाशिए पर रखा जाता है ? आखिर क्यों स्त्री अपराध की भूमिका को ग्लैमराइज
कर के परोसा जाता है। आखिर क्यों अपराध की तहे खोलते खोलते मीडिया केवल और केवल उसके निजी
जीवन की खुदाई प्रारम्भ कर देता है।
यह सारे प्रश्न है जिनके पीछे देखा जाए तो टी आर पी के समीकरण समझ आने लगते
हैं। इन्हीं समीकरणों में उलझकर स्त्री आज
मानवी के स्थान पर महज एक वस्तु बन गई है। स्त्री की छवि के लिए इतिहास में मिथकों की कमी नहीं है,स्त्री अभी उन्हीं
से जूझ रही थी कि मीडिया ने जीरो फिगर और सुपरमोम जैसी नयी अवधारणाओँ को गढ़ दिया
है।
आज अगर इन मिथकों को तोड़ने में हमारा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
सहायता करता तो यह निःसंदेह एक सराहनीय कदम
होगा पर ऐसा नहीं है अतः
इसकी भूमिका पर हमें पुनः चिंतन करना होगा और उसे बाध्य
करना होगा क्योंकि आखिरकार मीडिया पथ प्रदर्शक की भूमिका में भी है। मीडिया का आज सकारात्मक व नकारात्मक दोनों
ही रूप देखने को मिल रहा है । स्त्री
अस्मिता के जिन मापदंडों का जिक्र हम मीडिया के परिप्रेक्ष्य में कर रहें हैं वहाँ
दोहरे मापदंड है जहाँ एक ओर स्त्री मुक्ति का परचम उठाता हुआ मीडिया है वहीं उसी अस्मिता
को देह बनाकर परोसने का खतरा भी वहाँ मंडरा रहा है। आज सभी पैमाने स्त्री मुक्ति और
व्यवसाय के दोहरे स्तरों को साथ-साथ लेकर चलते हैं। हालांकि दूसरे रूप में देखे तो मीडिया ने स्त्रियों को मानवाधिकारों के
प्रति सबसे अधिक सजग किया है। पूर्व में घरेलू हिंसा जैसी अनेक घटनाएँ प्रकाश में
ही नहीं आ पाती थी परन्तु आज स्त्रियाँ उनसे त्रस्त ना होकर सीधे प्रकाश में ले
आती है। इन घटनाओं को मीडिया तक पहुँचाने
में मीडिया की सकारात्मक भूमिका रही है। परन्तु आज मीडिया अपनी भूमिका का अतिक्रमण
कर रहा है । वह स्त्री के लिए ऐसे संवेदनहीन शब्दों का प्रयोग करता है जैसे वह कोई
वस्तु हो। अपराध अगर स्त्री से जुड़ा हो
तो मीडिया उस घटना के पूरी तरह पीछे पड़ जाता है।
मीडिया स्वयं उन अपराधों को सुलझाने लगता है। यही अतिचेष्टा उस स्त्री के
जीवन में त्रासदी ला सकता है जिसका अपराध अभी तय भी नही हुआ है। मीडिया ट्रायल के
दौरान स्त्री के निजी जीवन से जुड़े प्रसंग तोड़ मरोड़कर इस तरह प्रस्तुत किए जाते
हैं कि अगर वो कभी फिर से सामाय सामाजिक जीवन जीने की सोच भी नहीं पाती। हाल ही
में घटित इन्द्राणी प्रकरण इसी का उदाहरण है।
स्त्री की छवि गढ़ने में मीडिया व्यावसायिक हितों
को ध्यान में रखता है। आज बाजारवाद और भूमंडलीकरण स्त्री की देहवादी छवि को गढ़
रहे हैं। आज हमारी हर सुबह एक विज्ञापन से शुरू होती है। टूथपेस्ट से लेकर रात को लिए जाने बोनविटा तक के विज्ञापनों पर
गौर करें तो हर जगह स्त्री उत्पादों का विज्ञापन करती नज़र आएगी। इस भौतिकतावादी
संस्कृति ने स्त्री को सर्वाधिक प्रभावित किया है। विज्ञापन करती स्त्री सुंदर
होनी चाहिए, उसके शरीर पर अवांछित वसा नहीं होनी चाहिए ये सब ऐसे बिन्दु है जिसने
स्त्री जीवन का अर्थशास्त्र ही गड़बड़ा दिया है। आज कोई स्त्री ट्रेफिक पुलिस के
रूप में कर्मक्षेत्र को चुन रही है या ऐसे चुनौतिपूर्ण कार्यों को कर रही है जहाँ
कोमल देह मिसफिट है तो वहाँ भी क्या ये सौन्दर्य के तय प्रतिमान अपनी भूमिक
निभाएँगें। आखिर क्यों मीडिया केवल और केवल अपनी सौन्दर्यवादी घारणाओं के आधार पर
स्त्री की छवि गढ़ रहा है। क्यों स्त्री के लिए जीरो फिगर और चिट्टियां कलाइयों
जैसी संकल्पना गढ़ी गई है। क्यों हर लड़के के लिए वधू के चयन में आज गोरी,छरहरी और
लम्बी लड़की को प्राथमिकता दी जाती है। यह कहना यहाँ ज़रूरी है कि मीडिया ही ये सब
छवियाँ ,मिथकों के रूप में गढ़ रहा है। अगर विज्ञापनों से ही इतर भी बात की जाए तो
जरा समाचार पढ़ती लड़कियों पर गौर कर लिया जाए। फाउंडेशन से लिपे पुते खुबसूरत
चेहरे ही आज इस व्यवसाय की पहली जरूरत बन गए हैं। योग्यता का सिर्फ और सिर्फ एक पैमाना
गढ़ ल्या गया है ।आज सोशल मीडिया युवाओं के लिए एक बड़ा
नेटवर्क उपलब्ध करवाता है। परन्तु यहाँ भी स्त्री को छल का सामना करना
पड़ता है । कई कई बार तो इतनी अधिक अभद्र और अपमानजनक टिप्पणियाँ देखने को मिलती
है कि मानवता ही शर्मसार हो जाती है। चैट इनबॉक्स इतनी अधिक असहजताओं से भरे होते
हैं कि वहाँ से हताशा और निराशा ही एक स्त्री को हाथ लगती है। हाल ही में घटा
मोनिका लैविंसकी प्रकरण इसका जीता जागता उदाहरण है। इन मंचों पर किसी की निजी
बातों में हस्तक्षेप करना कतई अशोभनीय माना जाता है परन्तु यह आभासी दुनिया कई बार
निजी दुनिया में इतना अधिक घुसपैठ करने का प्रयास करती है कि व्यक्ति आत्महत्या और
अवसाद के कगार पर पहुँच जाता है। हाल ही की बात की जाए तो अभी कई लोग इस बात
से सदमे में हैं कि अमृता राय ने शादी क्यों कर ली? और इसके तहत आप
अमृता की वाल को देखेंगें तो समझ पाएँगें कि एक स्त्री के लिए ऐसे मुद्दों को
झेलना कितना कष्टकारी होता होगा। इस नए ख़तरे का नाम 'साइबर बुलीइंग' है। इसका मतलब है इंटरनेट की दुनिया में किसी व्यक्ति के चरित्र
पर हमले करना, उसे प्रताड़ित करना।
अगर मीडिया को कर्मक्षेत्र के रूप में चुनने की बात की जाए महिलाओं को यहाँ भी भारी असमानता का सामना करना पड़ता है। उन्हें समान वेतनमान,
अनुकूल कार्य स्थिति, मातृत्व अवकाश जैसी अनेक समस्याओं से दो चार होना पड़ता है ।
कई बार तो उन्हे यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। सौन्दर्य के तय मापदण्ड तो
है ही साथ ही पुंसवादी मानसिकता के चलते इस क्षेत्र में डायरेक्टर, सिनेमेटोग्राफर, लेखक, मेकअप आर्टिस्ट के रूप में भी उनका योगदान बहुत कम है। इस समस्या को भी
दूर किया जाना आवश्यक है क्योंकि आधी आबादी को अपना जीवन जीने का पूरा पूरा हक है। आज
सर्वाधिक आवश्यकता है प्रतिरोध की क्योंकि प्रतिरोध ही परिस्थितियों को बदलने का
सामर्थ्य रखता है। प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया और सभी मंचों को स्त्री को स्त्री
की ही तरह देखने की एक समझ विकसित करनी होगी। स्त्री के उचित समाजीकरण की प्रक्रिया
को समझने के प्रयासों के लिए व्यक्ति मात्र को वैचारिक रूप से परिपक्व होना होगा।
मानवीय संवेदनाओं को उदात्त बनाना होगा। स्त्री को देह से परे एक मनुष्य मानना
होगा। साथ ही स्त्री को भी अपनी चेतना और
सजगता को बढाना होगा ,कुछ और परिपक्व होना होगा। उसे अपनी चुप्पी तोड़नी होगी अगर
किसी भी अन्य स्त्री के साथ वो अन्याय होते देखती है तो उसके खिलाफ आवाज उठानी
होगी। एकजुट प्रयासों से ही स्त्री मुक्ति के प्रयास संभव होंगें और मीडिया के
क्षेत्र में उसे उसकी वास्तविक अस्मिता की प्राप्ति होगी जिसकी वो वाकई हकदार है।
डॉ विमलेश शर्मा@vimleshsharma
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