जीवन का सर्वोत्तम उत्सव है विवाह, जहाँ दो कोरे मन सदा- सदा के लिए एक दूजे के हो जाते हैं। हमारी सनातन परम्परा में हर उत्सव में एक सादगी घुली दिखाई देती है परन्तु आधुनिक होते मानव ने प्रदर्शन और भोगलिप्सा को ही आत्मतुष्टि का आवश्यक अंग मान लिया है। पश्चिमी संस्कृति से चालित हमारा समाज अतिउपभोक्तावाद की ओर अग्रसर हो रहा है, नतीज़ा हमारी संस्कृति की वो सहजता, हमारे रस्मों रिवाज़ो से कहीं दूर छिटक गयी हैं। एक तरफ़ जहां शादियों में दिखावे की चमक हैं औऱ सिक्कों की बरसात होती नज़र आती हैं वहीं कोई सादगी से, इन रिवाज़ों की सात्विकता को बचाकर ज़िदादिली के रंग भी घोल जाता है। इसी सादगी की मिसाल पेश की, मंडोर जिला न्यायालय की जज प्रिया टावरी और अभिषेक बूब ने। ना कोई दिखावा, ना लक दक पहनावा और ना ही कोई अनावश्यक तामझाम। पारिवारिक सदस्यों औऱ रिश्तेदारों के बीच आयोजित यह सादगीपूर्ण आयोजन वाकई एक अनूठी मिसाल है। यह आयोजन ऐसे समय में सामने आता है जब ऊँचे ओहदे पर बैठे सफेदपोश, नेता औऱ जनप्रतिनिधि अपने आर्थिक समृद्धि दिखाने के उदाहरण बैलौंस प्रस्तुत कर रहे हों। ऐसी शादियाँ हर ज़गह चर्चा का विषय होती हैं औऱ यही चर्चा उनके आयोजकों को आत्मसंतुष्टि प्रदान करती है। शाही शादियाँ कोमल मन को सर्वाधिक आकर्षित करती हैं। धीरे-धीरे ये प्रथाएँ आमजन पर एक मनौवेज्ञानिक दबाव बना देती है, जिसे हर व्यक्ति येन-केन प्रकारेण पूरा करना ही चाहता है। निःसंदेह इस तरह दिखावे की यह मनोवृत्ति हर मानवीय पक्ष पर हावी हो जाती है।
वर्तमान
वैवाहिक आयोजनों पर जब हम नज़र डालते हैं तो राजसी चादर ओढ़े बेहिसाब खर्च सामने आ जाता है, जिसकी छाँव में इऩ आयोजनों की रूपरेखा बनती है।
व्हाट्स एप् और अखबारों में आए दिन अनेक स्वर्णिम झांकियां इन आयोजनों की दिखाई देती
है। पर सोचना होगा कि आखिर इन आयोजनों के बेहिसाब
खर्चो के पीछे कौनसा अर्थतंत्र औऱ
मनोविज्ञान काम करता है। वैवाहिक आयोजनों में बेहिसाब धन खर्च उच्च
वर्ग की देन है जिसे वे अपना स्टेटस सिंबल मानते हैं। इसी के चलते वो उन स्वर्ग तुल्य
मनोरम दृश्यों को धरती पर उतारने को लालायित नज़र आते हैं। हाल ही के एक वैवाहिक आयोजन में
ब्रज संस्कृति की झलक दिखलाती झांकियां आयोजन स्थल के कोने कोने में थी। वहां राग-रागिनियों पर झूमते माखनचोर कृष्ण
थे और उनकी गोपियों के नयनाभिराम दृश्य। पता करने पर ज्ञात हुआ कि करोङो का धन इन दृश्यों
पर लुटाया गया है। अगर ये धनकुबेर इन आयोजन स्थलों के बाहर के दृश्यों पर ज़रा भी नज़र डाल लेते तो शायद इन्हें इस अपव्यय की
कुछ हद तक समझ आ जाती । वे दृश्य
ह्रदय विदारक होते हैं जहां भूखे, नंगे बदन ठंड औऱ भूख से खुद में ही सिकुड़ते
नज़र आते हैं। प्रश्न उस भीतर के चकाचौंध युक्त
परिवेश से कि आखिर क्यों वे इस धनोन्माद में
औऱों की सुध नहीं ले पाते?
आजकल
बेशुमार धन खर्च करने की शायद होड़ सी मची है। जो जितना अधिक खर्च करेगा उसकी सामाजिक
प्रस्थिति उतनी ही उच्च मानी जाएगी। इस चलन से जो सर्वाधिक प्रभावित हुआ है वह मध्यवर्ग
है। हमारे समाज में आर्थिक विषमता की खाई पहले ही
बहुत गहरी है औऱ ऐसे आयोजन इस विषमता को कुछ औऱ गहरा कर देते हैं। मध्यवर्ग में
प्रर्दशन की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है। दरअसल उसकी त्रिशंकु स्थिति उसे यह करने
को प्रेरित करती है। वह जहाँ उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानता है वहीं निम्न वर्ग से
एक दूरी भी बनाए रखना चाहता है। उच्चवर्ग के साथ –साथ, वर्गीय अतिक्रमण की यह
मध्यवर्गीय चाहना भी शादियों में बढ़ती फिजूलखर्ची के लिए जिम्मेदार है। आज
भी हमारे सामाजिक ताने बाने में बेटी पराया धन मानी जाती है और ऐसे आयोजन हमारी उस कुप्रथा को औऱ बढ़ावा दे देते हैं, जो
जाने कितनी नवयौवनाओं का जीवन तक लील जाती है। दहेज हमारे समाज की एक बहुत बड़ी
विसंगति है जो किसी ना किसी रूप में आज भी मौजूद है। हमारी घरेलू चारदीवारियाँ आज भी उन तानों की आदी
हैं जिन्हें विवाह में मिलने वाले उपहारों की कमी पर ताउम्र सुनाया जाता है। मध्यवर्गीय
पिता के चेहरे को देखने पर सहज ही समझ आ जाता है कि उसे इस तरह बेज़ा खर्च होने
वाले पैसे को जुटाने के लिए कितने प्रयास करने पड़े होंगे। परन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा
को बचाने के लिए उसे भी उस दिखावटी भीड़ का हिस्सा बनना पड़ता है। साथ ही उसके मन
में यह भय भी रहता है कि कहीं उसकी संतान को आजीवन गलत बर्ताव ना सहन करना पड़े।
दरअसल इस प्रतिस्पर्धा का कोई अंत नहीं
है। निमंत्रण पत्र औऱ परिधानों से लेकर , संगीत,खान- पान तक इस हद तक पैसे की बर्बादी होती है कि सोचकर ही मन खिन्न हो
जाता है। खान-पान के नाम पर छप्पन पकवान औऱ फिर उनकी बर्बादी अब ऐसे आयोजनों में
आम बात है। आँकड़े भले ही भारत
को समृद्ध बताते हों परन्तु भारत में गरीबी की समस्या आज भी बहुत भयावह
है। अक्सर देखा गया है कि समूची भोजन व्यवस्था
में से लगभग 20% खाना ऐसे आयोजनों में पूर्णतः बर्बाद होता है। अनेक रस्मों में
होने वाले फिजूल खर्च भी इसी अपव्यय के उदाहरण है। आज आवश्यकता है उन बातों पर विचार करने की
जहाँ इस अनावश्यक खर्च को रोका जा सकता है। इस बात पर विचार किए जाने की आवश्यकता है कि यह धन
भावी दम्पति के सुखद भविष्य के लिए भी तो निवेश किया जा सकता है।
इन आयोजनों की तैयारियों औऱ सजावट में जितना प्लास्टिक प्रयोग किया जाता है, उसके मंजर पांडाल उठने पर सहज़ ही दिखाई दे जाते हैं। गंदगी से अटे मैदान अपनी कहानी स्वयं बयां करते हैं। आखिर कहाँ तक उचित है दो दिन की इन रस्मों
में दिखावे को इतना बढ़ावा देने की कि हम अन्य लोगों
के हितों का अतिक्रमण कर लें।
शाही शादियों को अंजाम देने वाले तमाम धनकुबेर
अगर अपने धन को सामाजिक हित में लगाएँ तो अनेक विसंगतियों से काफी हद तक निज़ात
पाई जा सकती है। समाज में नाना प्रकार के
अपराध तभी कम हो सकते हैं अगर विषमता की खाई को पाटने का काम किया जाए। परन्तु अगर
एक वर्ग केवल अपने ही हितों को देखते हुए जीवन के तमाम तथाकथित आनंद अपनी ज़द में
करना चाहे तो यह अनैतिक है। हमारा समाज बदल रहा है औऱ इस बदलाव में हमें हमारी सोच
को भी बदलना होगा। शादियों में फिजूलखर्ची को रोकने के लिए प्रिया औऱ अभिषेक जैसे
युवाओँ को आगे आना होगा। यह कतई सच नहीं है कि समाज
में किसी की स्थिति उसकी आर्थिक हैसियत से तय होती हो। व्यक्ति के कर्म उसे महान
बनाते हैं। ऐसे लोगों का भी सामाजिक
बहिष्कार होना चाहिए जो इन रस्मों में लेन-देन के हिमायती बनते हैं। आज हर व्यक्ति
शिक्षित है औऱ अपने दम पर जीवनयापन कर सकता है। अतः उस विचार को तिलांजलि देनी होगी कि दहेज से ही बेटी का भावी
संसार फलता- फूलता है। यह भी कतई ज़रूरी नहीं कि हर कुप्रथा से निबटने के लिए
कानून की ही शरण ली जाय। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे समाज में बिखरें हैं जहाँ बेहद
सादगी से इन आयोजनों को खुशी-खुशी अंजाम दिया जाता है। आज आवश्यकता है इन उदाहरणों को प्रोत्साहन की
ऊर्जा देने की , जिससे समाज में सकारात्मक
संदेश प्रेषित हो। वैवाहिक आयोजन सामाजिक मेल-मिलाप की धुरी है, समरसता का यज्ञ है
अतः प्रयास सहजता से रस्मअदायगी का ही होना चाहिए , दिखावे या प्रदर्शन से वैषम्य
को बढ़ावा देने का नहीं।
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