Thursday, August 24, 2017

विदा की देहरी पर बेटियाँ 

बेटियाँ देहरी उघाँलते वक्त 
सिर्फ आशीष नहीं बिखेरती 
अपने मेहंदी रचे हाथों से 
वरन् समेट रही होती हैं 
एक साथ बहुत कुछ 
अपनी विक्षिप्त मनःस्थिति में। 

बरसते आँसुओं में
वे कोरों से चुपचाप पकड़ती हैं 
उसी देहरी पर देरतलक ठिठकी पदचापें 
स्वर्ण मृग सी चपल और सुंदर स्मृतियाँ 
और थेले में लौटती सारी दुनिया की खुश सौगातें 

अपनी सुबकती हिचकियों में 
वे बार-बार अनुरोध करती है 
तैतीस करोड़ देवताओं से 
माँ बाबा की छाँव में कुछ और देर रूके रहने का 
ताकि थामे रहे भाई के हाथ को देरतलक  
और बहन से लिपट कर 
गला दे तमाम शिकवे 
मीठी चुहलबाजियों के 

आशाओं और इच्छाओं के भँवर में 
वे लौटती हैं उस चंदन के पालने पर 
जिसकी डोरी का रेशम 
मन पर अब तलक बेहिसाब बिछलता है 

जानते हो! 
विदा होते वक्त 
बेटी का दिल 
पहाड़ सा होता है 
भय की सिकुड़न और 
परिस्थितियों को झेलने की विराटता को
एक साथ, चुपचाप सहेजे हुए!

- विमलेश शर्मा

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