Saturday, November 28, 2015

हर कहानी एक तमाशा !!


इम्तियाज की फिल्म देखना मतलब कुछ पुराने में नए की कल्पना करना। अक्सर यही लगता है कि वही तो है जो अभी बीती फिल्म में देखा था पर भीतर ही भीतर कुछ खदबदाता है ,कुछ कुलबुलाता है , यही खूबी है  उनकी हर कहानी में और यह फिल्म तो कहानी भीतर कहानी सी है। तमाशा!!!..मेरी ,तेरी और हर आम ज़िंदगी का तमाशा।

तमाशा शुरू करने से पहले इम्तियाज पर बात करना बेहतर होगा। चाहे रॉक स्टार हो या तमाशा इम्तियाज कहीं ना कहीं उस युवा पीढ़ी से जुड़ते हैं जो भीड़ में होकर भी तन्हां है। वे युवाओं के अवसाद और जीवन और उसके भीतर पलते प्रेम को इतनी मासूमियत से दिखाते हैं कि इस युवा के प्रति चुप से  दिल के किसी कोने में प्रेम उपज जाता है। हाँ ! यह बात तय है कि वे केवल और केवल नई पीढ़ी को ,उसकी कशमकश को उकेरने वाले लेखक और निर्देशक हैं। लव आजकल हो ,रॉक स्टार हो ,जब वी मेट हो या तमाशा प्रेम सबमें कॉमन है। वह प्रेम जो बरसात सा बरसता है और एक सौंधी महक छोड़ देता है जो बनी रहती है बारिश के बरसने के बाद भी पहले की ही तरह अपनी ही तरह अनूठी ,अकेली  और शब्दातीत.. 

तमाशा में वे एक ओर बालमनोविज्ञान की गहरी समझ उजागर करते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम पर वही सब पुराना दोहराते हुए भी सिर्फ और सिर्फ विश्वास पर, उसकी बुनियाद पर प्रेम की इमारत खड़ी करते हैं औऱ आश्चर्य कि यह बुनियाद झूठ पर है। कार्शिया के जादूई रंगीन तिलिस्म के बीच जो सबसे अधिक आकर्षित करता है वह है प्रेम का सच्चा औऱ निश्छल चेहरा और उन्मुक्त खिली हँसी,जो पहाड़ो सी विराट है औऱ नदी में बैखौफ डूबती है , यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि उजली हँसी के इस रूप को  अपने किरदार में उतारने में दोनों ही कलाकार निःसंदेह सफल हुए हैं। परन्तु इसके बाद जो घटता है वह विचारों का अकस्मात् फट पड़ना है। फैंटेसी और यथार्थ के ताने बाने में गढ़ी यह कहानी जहाँ एक मासूम बच्चे की कहानी सुनने की दीवानगी की हद को बयां करती है वहीं यह तथ्य भी उजागर करती है कि कहानियाँ सदा बदलती रही हैं। इसीलिए शायद यहाँ कहानी सुनाने वाला किरदार हर कहानी को बिना किसी पृष्ठभूमि के अपने मने मुताबिक बढ़ाता है। कहानी सुनाने वाला वो बाबा अनजाने ही उस बचपन को समय , काल औऱ इतिहास से दूर ले जाकर भी कहीं कुछ इतना अधिक जोड़ देता है कि युसुफ औऱ ईसु के किरदार एक हो जाते हैं।  पाँच रूपये में पूरी कहानी सुनने की उत्सुकता औऱ मासूम चाहत कहीं ना कहीं मुझे मेरे बेटे की याद दिला देती है औऱ मैं पूरी फिल्म में उसी की चाहत को शिद्दत से एक और बार जी लेती हूँ। 

तमाशा फिल्म में दीपिका कुछ औऱ खूबसूरत, अपने चरित्र में पगी हुई और रणबीर से कुछ अधिक सशक्त किरदार बनकर उभरती नज़र आती हैं वहीं मध्यांतर के बाद रणबीर अपनी भूमिका से कुछ जूझते नज़र आते हैं। यही समय फिल्म का भी कुछ कमजोर पक्ष साबित होता है।  पर हाँ फिल्म के ही वाक्य की तरह कमजोर पल सब का होता है बस आगे दिशा खुद को ही देनी होती है, कहानी का पाथेय बनती है। यह दर्शन यहाँ बार बार उभर कर आया है कि मृग मरीचिका सा यह जीवन जिसमें दिखता सब सोना है और होता मिट्टी है बड़ी ही खूबसूरती से दिखाया गया है। रिजेक्शन से उपजे दर्द और दिल के वास्तविक रंग और उसी की कहानी को शब्दबद्ध किया है इम्तियाज ने ।  इरशाद कामिल अपने शब्दों दूरियों की खूँटियों पर यादे टाँकिये से हर बार की तरह ही चौंकाते हैं। उनसे मिल चुकी हूँ इसलिए कह सकती हूँ उनकी सहजता  औऱ सादगी उनके लफ्जों में  भी है।


कुल मिलाकर तमाशा एक कामयाब तमाशा है,प्रेम का बेतहाशा बहता सोता है जिसे रोक पाना संभव नहीं। यह तमाशा किसी सरस कविताई की मानिंद युवा मन को कभी अपने बचपन की सैर कराने में तो कभी खुद  से ही खुद की मुलाकात कराने में सफल प्रतीत होता दिखाई देता है।  

इम्तियाज ने यह बखूबी बताया है कि हर वक्त में एक कहानी होती है । यहाँ हर इंसान की अलग अलग कहानियाँ है । क्राशिया की एक कहानी है औऱ एक कहानी दिल्ली की है। एक मीडियोकर के किरदार में अपनी विक्षिप्तता में अपने को ही पुनः खोजना चाहता है तो दूसरा हर पल एक नयी कहानी गढ़ता और जीता है। मेरा मानना है कि यहाँ इम्तियाज की लेखकीय चेतना अधिक सजग है और वह कहानी दर कहानी नजर आती है।  कहानी के मनोविज्ञान के माध्यम से वे ये बताने में सफल हो जाते हैं कि अपनी कहानी का रचयिता हर व्यक्ति स्वयं है। कोई किसी का आदर्श या पथ प्रदर्शक नहीं हो सकता क्योंकि हर व्यक्ति का जीवन और उसकी कहानी और उसके अनुसार उसका किरदार सर्वथा अलग है। यहाँ इसी बात को सिद्ध करने के लिए प्रेम दिखाया है परन्तु प्रेम कहीं नेपथ्य में है और उस पर हावी है कहानी का रचनाकार जो प्रेंम के ही माध्यम से अपनी कहानी को दिशा देता है।
                                                        
                                                                       -विमलेश शर्मा

2 comments:

डॉ. अखिलेश कृतज्ञ said...

बिलकुल सही । बस, किसी 'तमाशे' की कहानी जाहिर हो जाती है तो किसी की नहीं ...। या यूँ भी कह सकते हैं कि किसी कहानी का 'तमाशा' बन भी जाता है तो किसी का नहीं भी ..। लेकिन होती है हर कहानी.....तमाशा । ' तमाशा' फ़िल्म उसकी है जो अपनी जिंदगी को अपने मन-दिल मुताबिक गढ़ता है, जीता है | 'आत्मदेवो भव:' को चरितार्थ करने वाली और प्रेम को सहेजने वाली - हर कहानी की 'तमाशा' |

विमलेश शर्मा said...

आत्मदेवो भव:' को चरितार्थ करने वाली और प्रेम को सहेजने वाली - हर कहानी की 'तमाशा' |
बहुत खूब..