Saturday, January 2, 2016

परिवार ही है सामाजिक व्यवस्था की धुरी


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एक और नया साल, कुछ औऱ सपने औऱ कुछ और  फलक माप लेने  की आकांक्षा ..इन्हीं तिनका-तिनका ख़्वाबों को  लेकर हर मन फ़िर एक नयी यात्रा पर निकल पड़ा है। यांत्रिकता के बढ़ते बेतार साधनों के साथ हर व्यक्ति जागता है और सोता है। हर पल नयी उपलब्धियों के बढ़ते जाल को देख वो कुंठित होता है औऱ ऐसे में उसके भीतर बहता नेह का सोता कहीं सूख जाता है। वस्तुतः उपलब्धियाँ,व्यक्तिगत ऊँचाईयाँ तभी सार्थक है जब उनकी सराहना करने वाला कोई हो। जब किसी के साथ उसे बाँटा जा सके। बाहरी प्रभाव औऱ इस प्रतिस्पर्धात्मक माहौल ने व्यक्ति को स्व पर केन्द्रित कर दिया है, इसी स्व के कारण आज व्यक्ति अपनों के साथ रहते हुए भी अकेला है, परिवार में रहते हुए भी कट गया है  औऱ शायद यही वे कारण भी है कि जिसके तहत अपराध औऱ अवसाद निरन्तर बढ़ रहे हैं। आज बचपन श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त कर रहा है पर सशंकित है, स्त्री आधुनिक होते हुए भी देह और देहरी जैसे शब्दों से जूझ रही है, वृद्धजन अकेले हैं , चौपालें और घर के आँगन स्नेह की बौछारों औऱ अपने से अभिवादनों की बाट जोहते हैं। जिंदगी की ओर देखने के व्यावसायिक नज़रिए ने हमारी वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा पर कहीं ना कहीं गहरी चोट की है औऱ इसके तहत जो सर्वाधिक प्रभावित हुई है वह है हमारी परिवार संस्था। ग्लोबल गाँव की अवधारणाओं के सत्य फलीभूत होने में पूर्व और पश्चिम समीप आ रहे हैं परन्तु इस सामीप्य में भी यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों की कहीं बलि ना चढ़ा दें। व्यक्तित्व विकास में स्व का विकास परम आवश्यक है और बदलती सामाजिक परिस्थतियों में यह निंदनीय भी नहीं होना चाहिए लेकिन यह विकास इतना भी नहीं हो कि वह आदमी को व्यक्तिगत एवं मानसिक रूप से पंगु कर दे। 
वर्तमान समाज अनेक विसंगतियों से ग्रस्त है , हर वर्ग चाहे वह बचपन हो, स्त्री हो, विशेष योग्य जन हो या फिर वृद्ध जन , आज सभी सुरक्षा की छाँव ढूँढ रहे है, ऐसे में आज परिवार की अवधारणा को पुनर्ववा करने की आवश्यकता है क्योंकि नव युवा एकल घरोंदों की और बढ रहे है जिसकी परिणति सिर्फ अवसाद है। परिवार एक केन्द्रीय अवधारणा है जो सहितं की परीपाटी पर आधारित है। जहाँ बचपन बैखौफ अनुभवों की अँगुली थामे दौड़ता है और बुढ़ापा युवाओं के काँधों पर अपनी ऊष्मा बिखेरता है। जहाँ प्रभाविकता का नियम इतना कारगर है कि अपराध एवं मूल्यहीनता को किनारे करने की समझ हर कृत्य के साथ-साथ तुरंत मिल जाती है। बढ़ते अवसाद औऱ दबाव को परिवार ही सुरक्षा को हाथों से थाम सकता है। हालांकि आज यह व्यवस्था बिखर गई है और अनेक आपराधिक प्रंसंगों ने परिवार की अवधारणा पर ही सवालिया निशान लगा दिए हैं परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि परिवार आज भी व्यक्तित्व गढ़ने तथा सामाजिकता और नैतिकता को विकसित करने का सबसे विश्वसनीय और अहं माध्यम है।
हम विकास के चाहे कितने भी पायदान चढ़ ले हमारी जड़े हमारी  उत्सवधर्मी संस्कृति में ही निहित है जहाँ वर्षारम्भ से लेकर वर्षान्त तक रिश्तों के आपसी सौहार्द के त्योहार निरन्तर झूमते रहते हैं। जहाँ संस्कार छोटे से छोटे कर्म में ही सिखा दिए जाते हैं, जहाँ रिश्तों की सहेजन की सौंधी बयार महकती है औऱ सुरक्षा के माहौल में तहज़ीब पलती है। आने वाली पीढ़ी को आज परिवार की ओर मोड़ने की आवश्यकता है जहाँ वे अपनी परेशानियों को बेसबब बाँट सके , राहें चुनने का हौंसला पा सके औऱ सामाजिक और वैचारिक प्रदूषण की समस्या से निजात पाकर आशावाद के उस  चरम फल की और बढ़ सकें जिसे पाकर जीवन मनु की मानसरोवर यात्रा सा आनंदित हो सकता है।

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