स्त्री जीवन के अधखुले पन्ने-4
जो जितना दर्द सहता
है वो उतना ही चुपचाप दरकता है...पर ये दरकन बेआवाज़ नहीं होती। क्या आपने किसी
कोमल कोंपल को कभी मुरझाते हुए देखा है?
गर उसे यूँ देखेंगे तो पाएँगें कि हमारी नैतिकता के मापदण्ड कितने मोथरे औऱ एक जटिल प्रमेय भर हैं। मैंने अनेक बार अपने ही कॉलेज में कई छात्राओं को सहमे हुए और एक अज़नबी खौंफ से तारी होते हुए देखा है। बार-बार पूछने औऱ मनोवैज्ञानिक खुराक देने पर पता चलता है कि वह फिर किसी फ़ब्ती औऱ छेड़छाड़ का शिकार हुई है। अक्सर विक्षिप्त लोग भी आपत्तिजनक हालत में परिसर के इर्द-गिर्द अजीबोगरीब हरकतें करते नज़र आते हैं। लगातार घटती इन घटनाओं को देखकर यह सवाल बार-बार जेहन में आता है कि महाविद्यालय परिसर और शैक्षिक संस्थानों में तो छात्राएँ महफ़ूज़ हैं पर यह शोहदों का हुजूम जो बाहर उमड़ा रहता है उनसॆ बचाने की जिम्मेदार भूमिका आखिर कौन तय करेगा । इस आवारगी औऱ उच्छृंखलता के जमावड़े के आगे अक्सर प्रशासन हार जाता है। आवारगी करते ये युवक भय मिश्रित एक असहज माहौल का निर्माण करते हैं। अजमेर शहर के राजकीय कन्या महाविद्यालय की ही बात की जाय तो यहाँ लड़कियाँ पढ़ने के लिए सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से अलसुबह चल कर आती हैं। सहज आत्मीय परिवेश से निकली ये कौंपले कई बार छेड़छाड़ के इन प्रसंगों से औऱ पीछा करती नज़रों से इतनी आहत हो जाती हैं कि वे नियमित महाविद्यालय आना ही छोड़ देती हैं। लड़कियों के इन मानसिक तनाव के हालातों पर मीर याद आ जाते हैं कि आखिर इस तरह बज़्म में गुज़र किस तरह की जाय- ‘यूँ भी मुश्किल है वो भी मुश्किल है, सर झुकाए गुज़र करें क्यों कर...’
गर उसे यूँ देखेंगे तो पाएँगें कि हमारी नैतिकता के मापदण्ड कितने मोथरे औऱ एक जटिल प्रमेय भर हैं। मैंने अनेक बार अपने ही कॉलेज में कई छात्राओं को सहमे हुए और एक अज़नबी खौंफ से तारी होते हुए देखा है। बार-बार पूछने औऱ मनोवैज्ञानिक खुराक देने पर पता चलता है कि वह फिर किसी फ़ब्ती औऱ छेड़छाड़ का शिकार हुई है। अक्सर विक्षिप्त लोग भी आपत्तिजनक हालत में परिसर के इर्द-गिर्द अजीबोगरीब हरकतें करते नज़र आते हैं। लगातार घटती इन घटनाओं को देखकर यह सवाल बार-बार जेहन में आता है कि महाविद्यालय परिसर और शैक्षिक संस्थानों में तो छात्राएँ महफ़ूज़ हैं पर यह शोहदों का हुजूम जो बाहर उमड़ा रहता है उनसॆ बचाने की जिम्मेदार भूमिका आखिर कौन तय करेगा । इस आवारगी औऱ उच्छृंखलता के जमावड़े के आगे अक्सर प्रशासन हार जाता है। आवारगी करते ये युवक भय मिश्रित एक असहज माहौल का निर्माण करते हैं। अजमेर शहर के राजकीय कन्या महाविद्यालय की ही बात की जाय तो यहाँ लड़कियाँ पढ़ने के लिए सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से अलसुबह चल कर आती हैं। सहज आत्मीय परिवेश से निकली ये कौंपले कई बार छेड़छाड़ के इन प्रसंगों से औऱ पीछा करती नज़रों से इतनी आहत हो जाती हैं कि वे नियमित महाविद्यालय आना ही छोड़ देती हैं। लड़कियों के इन मानसिक तनाव के हालातों पर मीर याद आ जाते हैं कि आखिर इस तरह बज़्म में गुज़र किस तरह की जाय- ‘यूँ भी मुश्किल है वो भी मुश्किल है, सर झुकाए गुज़र करें क्यों कर...’
हम भले ही 21वीं
सदीं में पहुँचने की बात करते हैं पर स्त्री जीवन और उसका यह रोज़नामचा कुछ औऱ ही
बयां करता है। वास्तविक जीवन में आदर्श की कल्पना ही यूटोपिया है औऱ फ़िर स्त्री
मन के आदर्श तो रोज़ छलनी होते हैं। यह आदर्श तब टूटता है जब कोई घूर-घूर कर भरोसे
की आँख में कंकड़ चुभा जाया करता है। हमारी लड़कियों का यह टूटा भरोसा फिर से कायम हो,
इसके लिए समाज को आगे आना होगा। आग्रह है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसे रोकिए। होता
यह है कि हम मूकदर्शक बन कर बस अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रहे होते हैं।
लड़कियों के पहनावे औऱ उनकी हँसी पर पाबन्दी लगाने के बज़ाय प्रयास उन आँखों की
रंगीनी उतारने का होना चाहिए जो बेमतलब किसी को परेशान करने में ही अपने लिजलिजे अहं
की तुष्टि करते हैं। लड़कियों के इर्द-गिर्द उड़ते इन मनचलों की नज़रों को ठीक
करने के लिए शहर प्रशासन औऱ जन समुदाय को सख्ती बरतनी होगी अन्यथा हमारे शैक्षिक संस्थानों की बाहरी सड़कें अप्रिय घटनाओं, उच्छृंखलता औऱ असामाजिक व्यवहार
की शरणगाह बन जाएँगी।
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