Thursday, June 29, 2017

सजग रहकर तोड़ना होगा सूचनाओं का भ्रमजाल




हर खबर का अपना सूचना तंत्र होता है। कभी यह तंत्र जनपक्षधर होकर   सामाजिक हित में जनता के साथ खड़ा होता है तो कभी महज सनसनी फैलाता है। यों हर प्रसारित सूचना का उद्देश्य भी होता है और फलादेश भी।समाज में परिवर्तन के साथ-साथ पत्रकारिता में भी बदलाव आया है।तत्काल खबरों की चुनौती से सोशलमीडिया के प्रयोग को बल मिला। कोई भी खबर हो, अब सोशल मीडिया के हवाले से चंद मिनटों में ही वायरल हो जाती है। पर नई सम्भावनाओं की इस तलाश ने खबरों की विश्वसनीयता को ध्वस्त कर दिया है। अब तक यह माना जाता था कि जो दिखता है,वो सच होता है संभवतः इसीलिए टी.वी. को अखबारों से अधिक महत्त्व मिला। उसी टी.वी का अगला पायदान फेसबुक, ट्वीटर,व्याटस एप्प हुए क्योंकि ये हर वर्ग की जद में हैं तथा लोकप्रिय साधन हैं। सोशल मीडिया के ये मंच दरअसल बेलगाम भी हैं। ये प्रसारण में तो तीव्र हैं पर उन पर नज़र रखने के लिए प्रभावी तीसरी आँख नहीं है जिसका नतीजा है कि इस पर झूठी खबरों का चलन बढ़ता जा रहा है।  ये मंच जो घटनाओं के समीकरण से अजान आम आदमी की जद में है, उसे भ्रमित करता है। ऐसी ही खबरों को आजकल  फेक न्यूज का नाम दिया गया है। ऐसा नहीं है कि ऐसी झूठी खबरों का बाज़ार सिर्फ और सिर्फ भारत में ही फल-फूल रहा है बल्कि पूरा विश्व इनकी जद में हैं। वैश्विक स्तर पर सरकारों द्वारा इन झूठी खबरों को प्रसारित करने का ताजा तरीन मामला अमेरिका राष्ट्रपति चुनावों का है। जिनमें से अगर बतौर उदाहरण देखें तो डेनवरगारजियन डॉट काम पर एक खबर इस हेडलाइन के साथ वायरल हुई कि हिलेरी इमेल लीक प्रकरण में जो संदिग्ध  एफ बी आई एजेन्ट था वह मर्डर या आत्महत्या के तहत मृत पाया गया। ऑनलाइन फेक न्यूज के मामले तब सामने आए जब अमेरिका ने 45 वें राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप को चुना। विश्लेषक व प्रभाव रखने वाले मीडिया ने हिलेरी की जीत को लेकर भविष्यवाणी की थी, लेकिन आम दर्शक गलत साबित हुआ । वास्तविकता, काल्पनिकता से बहुत अलग थी।  ऐसी खबरें जो कोई तीसरी आँख,कौतूहल को बढ़ाने के लिए उत्पादित करती है कई मर्तबा विरोधी दलों को लाभ या हानि पहुँचाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
फेक न्यूज की बड़ी श्रृंखलाएँ सोशल मीडिया के इन मंचों पर मौजूद हैं,पर जो बात चौंकाती है वह यह है कि सरकारें भी इन फेक न्यूज का उत्पादन अपनी सहूलियत और निजी स्वार्थों को साधने के लिए करती हैं। इसी बात का खुलासा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की कम्यूनिकेशन प्रोपेगेंड़ा रिसर्च प्रोजेक्ट नाम की एक रिपोर्ट में भी किया गया है। जिसमें एक स्वचालित कम्पयूटर स्क्रिप्ट का जिक्र है जो एक साथ कई लाख लोगों को भेजी जा सकती है और इसके जरिए ट्वीटर, फेसबुक और पेज पर लाइक्स और फालोवरस की संख्या और साझा की गई पोस्ट्स दिखाई जाती है। फॉक्स, यूटीवी,वायाकॉम 18,वार्नर ब्रास जैसी कंपनियां जिस तरह हमारे सिनेमा को नियंत्रित कर रही हैं उसी तरह सोशल मीडिया के फेक लाइक्स, फॉलोअरस जैसे आँकड़ें भी देश और विदेश की कई वेबसाइट्स के जरिए  इसी तरह परदे के पीछे से संचालित हो रहे हैं, ट्राई हो रहे हैं। ये घटनाएँ मीडिया की आजादी औऱ गिरती साख को तो बताती ही है पर जनतंत्र को भी भीतर से तोड़ कर रख देती है।
सोद्देश्य और जन पक्षधर लेखन की बजाय महज सनसनी बनाए रखने का, इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता    का यह स्याह पक्ष खौंफ पैदा करता है। इसमें आम आदमी कभी भी ट्रोल किया जा सकता है, सरे आम किसी पर भी पत्थर फेंका जा सकता है या कोई भी बेकाबू , अनिंत्रित और हिंसक, नमाजी भीड़ के हत्थे चढ़ सकता है। पिछले कुछ सालों में भारतीय राजनीति के अखाड़े में नेताओं के लिए सोशल मीडिया बेहद मारक और अचूक हथियार साबित हुआ है। पूर्व में भ्रष्टाचार के विरोध में हुए आंदोलन से इस मंच की ताकत का एहसास राजनीतिक पार्टियों को हो गया था। इसी जादू से प्रभावित होकर सभी राजनीतिक पार्टियों को इस ओऱ रूख भी करना पड़ा। लोकसभा चुनावों के बाद हालांकि इस पर बहस तेज हो गयी है  कि सोशल मीडिया के कितने फायदे हैं और कितने नुकसान पर फिर भी अपनी तरह से अनुकूल लहर फैलाने का काम सरकारों, राजनितिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं द्वारा जारी है। कुछ लोग एक मैमे बनाते हैं, जिसे ट्वीटर पर पोस्ट किया जाता है औऱ फिर वह व्हाट्स एप्प ग्रुप्स में चलने लगता है। न्यूयार्क टाइम्स में छपा लेख इन्हीं खतरों की ओर ध्यान खींचता है। फेक न्यूज का यह बढ़ता आँकड़ा अब सरकारी और आर्थिक दखल से भी आगे बढ़ गया है। ट्रंप जैसे राजनयिक लोग इस धारा का इस्तेमाल भी करते हैं और फिर इसे बाजारू भी घोषित कर देते हैं।
          फेक न्यूज के बढ़ते दायरे ने मुख्य धारा की खबरों और बौद्धिक लेखों को हाशिए पर धकेल दिया है । आज का युवा जिन खबरों से स्वाधिक प्रभावित है,वह फेक न्यूज है। आज अगर कोई आम आदमी सरकार या प्रशासन के खिलाफ गलत बयानबाजी करता है तो उस मुखर विरोध को दबाने के लिए आई टी कानून हैं, उसे फिर भी रोका जा सकता है। पर जब स्वयं सरकारें इस तरह के आरोपों से घिरेंगी तो उनके लिए ट्राई(नियामक संस्था) की भूमिका में कौन आगे आएगा। सरकारें, दल इन फेक न्यूज के माध्यम से अवाम की जन भवनाओं को उकसाने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह एक सीमित जानकारी के तहत जनता को भ्रम में रखने  की कोशिश है। सोशलमीडिया पर वायरल होने वाली ये खबरें उन्माद पैदा करती है। इस तरह से खबरों का अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करना , किसी को राष्ट्रवादी, गैर राष्ट्रवादी घोषित करना भारत ही नहीं विश्व स्तर की राजनीति  का हथियार है। कैराना को कश्मीर बनाने की साजिश हो, मंदिर और मस्जिद जलने की अफवाह हो या अन्य देश पर आक्रमण या लड़ाई की खबरें हो अनेक खबरों की फेक न्यूज ,आज फेसबुक या न्यूज अपडेट्स पर तैरती मिलती रहती है। अभी हाल ही में आरक्षण खत्म करने की बातें भी सोशल मीडिया पर तैरती मिल रही थी, जो बेबुनियाद थीं।

जाहिर है कि ये मामले  मीडिया की स्वायत्ता के खिलाफ खतरे को इंगित करते हैं। कोई खबर छपती है, चलती है और किसी अन्य का राजनीतिक कैरियर खत्म हो जाता है,। यह डिजाइन, यह साजिशें जनता को ही रोकनी होगी। ऐसे संगठन बनाने होंगे  जो फेक न्यूज की निगरानी रख सके। हमें विवेकबोध की ज़रूरत है जो सच औऱ झूठ में अंतर कर सके। बहुत कम लोग हैं जिन्हें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य मामलों की वास्तविक समझ है पर आज कोई भी आकर विचार, तथ्यों और विश्लेषणों से परे मह़ज क्षणिक भावावेश में आकर अपनी राय ज़ाहिर कर देता है औऱ बात सच, झूठ के परीक्षण से गुजरे बिना ही वायरल हो जाती है। ऑनलाइन वर्ग को फेकन्यूज वेंडर्स के प्रति जागरूक होना होगा। इसी को ध्यान में रखते हुए बीबीसी ने स्लो न्यूज जारी करने की बात कही है तथा फेसबुक ने भी एडिटिंग का विकल्प रखने की बात कही है। बीबीसी के अनुसार 83 प्रतिशत भारतीय दर्शक इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि यह सूचना, खबर असली है या नकली। इस भ्रम से बचने के लिए ब्लूम लाइव डॉट इन, हाल्ट न्यूज डॉट इन(अहमदाबाद) तथा मीडिया विजिल जैसी अनेक वेबसाइट्स ऐसी खबरों, पोस्टस को उद्घाटित करने की कोशिश कर रही हैं जो नकली हैं, पर इनका प्रसार अभी भी बहुत कम है। सोशल मीडिया पर भ्रम के इस कारोबार को, जिसके मूल में कहीं ना कहीं तल्खी बनाए रखने की जिद और सनसनी ही शामिल है, रोकना होगा अन्यथा मीडिया जनतंत्र के उस विश्वास को खो देगा जो उसने अपनी प्रतिबद्धता और विश्वसनीयता के दम पर हासिल किया है ।

1 comment:

abhishek said...

शोधपूर्ण सारगर्भित अद्यनित लेख.... आभार