अध्यात्म कहता है कि हम वही देते हैं और दे सकते हैं जो कि हमारे पास है; या और गहरे खोंजे तो केवल वही, जो हम हैं। स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी दिया ही नहीं जा सकता। इसीलिए जो भी हम देते हैं, क्रोध या करुणा, घृणा या प्रेम, वही हमारी प्रतिमा है। और वही वस्तुतः हम हैं। इसे एक ओर प्रसंग से समझा जा सकता है। एक बार ईसा एक गाँव से गुजर रहे थे। कुछ लोगों ने उन्हें गालियाँ दीं। बेहूदी, अशिष्ट, अभद्र। अशिष्ट और अभद्र इसलिए कह रही हूँ क्योंकि शिष्ट और भद्र गालियाँ भी संसार में हैं। दरअसल शब्द के बर्ताव की नाना भंगिमाएँ हैं,बात उसे बरतने भर की है। एक शब्द मरहम लगाता है तो एक शब्द घाव देता है। ईसा ने गालियाँ सुनीं और प्रत्युत्तर में उन सब के लिए प्रभु से प्रार्थना की।
एक व्यक्ति जो पास ही खड़ा था, ने जब यह सब देखा तो ईसा से कहा-
“ये क्या कर रहे हैं आप?
प्रार्थनाएँ गालियों के उत्तर में?”
ऐसा लेन-देन मैंने कभी देखा नहीं।
ईसा ने कहा, “लेकिन मैं वही तो खर्च कर सकता हूँ न जो कि मेरी गांठ में है।”
यह गांठ हमारा अंतस् है, हमारी चेतना है और चेतना अपने भीतर उतरने में है। जब हर चीज़ नश्वर है, हर वस्तु क्षणभंगुर है तो हम इस सृष्टि के अदना से जीव होकर आख़िर किस बात का अहंकार पाले बैठते हैं। साहिर लिख गए हैं-
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज
वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज ।
वक़्त की गर्दिश से है, चाँद तारों का निज़ाम
वक़्त की ठोकर में है क्या हुकूमत क्या समाज ।
वक़्त की पाबंद हैं आती जाती रौनक़ें
वक़्त है फूलों के सेज, वक़्त है काँटों का ताज ।
वक़्त के आगे उड़ी कितनी तहज़ीबों की धूल
वक़्त के आगे मिटे कितने मज़हब और रिवाज़ ।
आदमी को चाहिए वक़्त से डर कर रहे
कौन जाने किस घड़ी वक़्त का बदले मिज़ाज ।
सच ही वक्त हर घड़ी अपने तेवर बदलकर इंसान को तुच्छ सिद्ध करता रहता है इसीलिए हमारे पुरखे क्षण-क्षण, साँस-साँस को खुली आँखों से जीवन जीने की बात कह गए हैं; उस जीवन को जीने की जिसकी एक अखंड धारा है, जिसका कहीं कोई तोड़ नहीं। जीवन कर्म की प्रतिबद्धता से बढ़ता-खिलता है पर जीवन के हर जानिब की अपनी सीख और रवायत है। हर वय यदि उस रवायत को प्रतिबद्धता और आनंद के साथ सीखती चले तो हर जीवन एक यज्ञ हो जाए और हर कर्म एक आहूति। यहाँ एक चूक हुई कि जीवन की ज़ानिब से एक ज़ीना चूक जाते हैं। क़ाबिल अजमेरी इसीलिए कह गए हैं कि-
“वक़्त करता है परवरिश बरसों
हादिसा एक दम नहीं होता।”
इस संसार कि जाने कितनी बातें हैं जो किसी दर्ज़े की किताब में नहीं हैं, कितनी बातों से गुज़रते हुए हमें लगता है कि हम उससे वाक़िफ़ नहीं है। दरअसल यह सिर्फ बूँद होने की बात है जिसे इंसान सबकुछ समझ बैठता है। यह भी कभी हुआ है कि बूँद बूँद की ही तरह जानी जाए, ‘बूँद तो समानी समुद्र में सो कत हेरी जाय’ (कबीर)। हर इंसान क़ाबिलियत और ऐब का मिलाजुला पुतला है। इसलिए जीवन की तमाम बंदिशों के बीच जिए जाने की ज़िद्दी धुन का मान किया जाना चाहिए। हर बार बात कुछ और क़दम चलने की होनी चाहिए, हर बार बात हर मन को सहेजने की होनी चाहिए, बोली से शब्द फेफ के फूलों की ही तरह झरने चाहिए और मन बासंती राग-सा खिलखिलाता होना चाहिए। मन की तासीर कहीं कोमल है तो कहीं इतनी नाज़ुक कि-
“मर जाता है तंज भरे इक जुमले से
कोई-कोई तो इतना ज़िंदा होता है।”(शारिक़ कैफ़ी)
इसलिए बात असाधारण से परे साधारण की होनी चाहिए, तर्क से परे भाव की होनी चाहिए।
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